Saturday, March 17, 2012

तालिबान से बेमानी वार्ता



 तालिबान से बेमानी वार्ता
(अमेरिका-तालिबान वार्ता पर अडनी ब्यूरो की टिप्पणी)
अगर अमेरिकी यह सोचते हैं कि वे तालिबान के साथ कोई समझौता कर लेंगे, जो न केवल 2014 में उनकी वापसी की लाज रख पाएगा बल्कि अफगानिस्तान के युद्ध-पीडि़त लोगों के लिए सम्मानजनक भी होगा, तो वे मुगालते में हैं। हालांकि इस उग्रवादी संगठन को कतर में अपना दफ्तर खोलने की इजाजत दे दी गई है, लेकिन लगता नहीं कि वह अपनी तीन बुनियादी मांगों पर कोई समझौता करेगा। उसकी मांगें हैं- अफगानिस्तान से सभी विदेशी सेनाओं की वापसी, काबुल और ग्वातानामो बे की जेलों में बंद सभी तालिबान कैदियों की रिहाई तथा खुद को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए हामिद करजई सरकार को हटाना। और फिर, अफगानिस्तान के बारे में लंदन में हुए पिछले सम्मेलन में अफगानिस्तान के संविधान को स्वीकार करने, सभी जातीय/राजनीतिक दलों को समान अवसर उपलब्ध कराने तथा नागरिकों के अधिकारों का सम्मान करने जैसी मानी गई सुलह-सफाई की कुछ बातों के बारे में वह जानबूझकर चुप है। हथियार सौंपने और हिंसा त्यागने के बारे में भी वह मौन है। वाशिंगटन की कोशिश के बारे में न तो करजई सरकार और न ही पाक सेना खुश हैं, क्योंकि दोनों को ही इस प्रकार की व्यवस्था से अलग-अलग उम्मीदें हैं। पाकिस्तान काबुल में एक ऐसी सरकार चाहता है, जिस पर उसका नियंत्रण हो और जो उसे भारत के खिलाफ बहु-प्रतीक्षित सामरिक पैठ दिला सके। इसलिए उसने इस नीति को थोपने तथा यह सुनिश्चित करने के लिए तालिबान को जरिया बनाया है कि सभी विदेशी सेनाएं हट जाएं और मैदान उसके लिए साफ हो जाए। राष्ट्रपति करजई का मानना है कि वह तालिबान पर उसकी शर्तों पर समझौता नहीं करना चाहते और शांति के लिए बातचीत के लिए उसे हथियार डालने होंगे। अफगानिस्तान के लोकतांत्रिक संस्थानों को स्वीकार कर लेने और संसदीय चुनावों में भाग लेकर वे सत्ता में भी आ सकते हैं। हाल ही में गतिविधियों में तेजी आ गई है, जिससे पता चलता है कि अमेरिका अपनी योजना को अमली जामा पहनाने के लिए उत्सुक है। अमेरिका की हड़बड़ी का कारण हाल ही में तालिबान द्वारा जारी दो बयान हैं। अमेरिका इन्हें इतनी बड़ी रियायतें मानता है कि वह ग्वातानामो बे में बंद पांच तालिबान आतंकवादियों को रिहा करने पर सोचने लगा है। पहली घोषणा में कहा गया था कि कतर में दफ्तर खोलने के बाद तालिबान दुनिया से बातचीत करेंगे। दूसरी में कहा गया था कि बातचीत का मतलब जिहाद की समाप्ति या अफगान संविधान को मानना नहीं होगा। भोले-भाले अमेरिकी इन दोनों विरोधाभासी बातों को सकारात्मक संकेत मान रहे हैं! तालिबान की शतर्ें तो स्पष्ट हैं, लेकिन अमेरिकी शर्तों का क्या? हैरानी की बात है कि कम से कम सार्वजनिक तौर पर तालिबान से आत्मघाती बम हमलों को रोकने के बारे में कोई शर्त नहीं रखी गई, जिनका इस्तेमाल अफगान सरकार से रियायतें हासिल करने के एक हथियार के रूप में किया जाता रहा है। अमेरिका की इस बात के लिए तारीफ की जा सकती है कि इस चाल से तालिबान ने हिंसा छोड़ने और शांति के लिए वार्ता करने की इच्छा जताई है, जो अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है। दरअसल, तालिबान के मजहबी कट्टरपन के खिलाफ लड़ना कभी अमेरिकी के एजेंडे में रहा ही नहीं है। उसका असल मकसद तो अलकायदा को हराना, पाकिस्तान में उसकी सुरक्षित पनाहगाहों का खात्मा करना और उसे फिर सिर उठाने से रोकना है। इस प्रकार, तालिबान की विचारधारा मुद्दा नहीं है और न ही यह बातचीत का आधार है। अमेरिका मानवाधिकारों के मुद्दे पर तालिबान से कोई आश्वासन लेता नहीं दिख रहा। यह खतरनाक बात है। अमेरिका का अफगानिस्तान से हटने का मतलब है तालिबान के पांच साल के शासन (सितंबर 1996-अक्टूबर 2001) की पुनरावृत्ति का खतरा।



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