मिसाल बनते लैटिन अमेरिकी देश
-भारत डोगरा पिछले एक दशक के दौरान लैटिन अमेरिका में कई महत्वपूर्ण बदलाव आए हैं और कई संदर्भो में यह क्षेत्र दुनिया में सार्थक बदलाव चाहने वालों लोगों के लिए प्रेरणास्त्रोत बना हुआ है। बदलाव की कोई एक तिथि तय करना तो कठिन है। फिर भी इस सदी के आरंभ से यानी वर्ष 2000 से मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि लातिन अमेरिका में ऐसे कई महत्वपूर्ण आंदोलन हुए, जो उसे पहले के विषमता भरे समय और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के वर्चस्व के मॉडल से अलग राह पर ले जा सकते हैं। इससे पहले के लगभग दो दशकों का दौर यानी 1980 से 2000 का समय यहां की अर्थव्यवस्थाओं में नव-उदारवादी सोच के छा जाने का समय था जिससे आर्थिक विषमता व बाजारवाद को बढ़ावा मिला। विभिन्न देशों के प्राकृतिक संसाधनों पर बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का नियंत्रण बढ़ा। संयुक्त राज्य अमेरिका की विभिन्न नीतियों व अनुचित हस्तक्षेप के विरोध में जो छोटा सा देश क्यूबा खड़ा था, उस पर संयुक्त राज्य अमेरिका ने कड़े प्रतिबंध लगा दिए थे। इससे क्यूबा को गंभीर कठिनाइयों से गुजरना पड़ा, पर क्यूबा के बारे में यह मानना पड़ेगा कि उसने इन चुनौतियों का सामना न केवल साहस से किया, बल्कि उसने रचनात्मकता भी बहुत दिखाई। खाद्य और कृषि संकट से निपटने के लिए इस तरह के तौर-तरीके अपनाए गए, जिसमें रासायनिक खाद और कीटनाशकों आदि के उपयोग से बचा जा सके। इस तरह एक ओर तो आत्मनिर्भरता को बढ़ाया गया और दूसरी ओर अधिक पौष्टिक भोजन प्राप्त करने तथा पर्यावरण को बचाने के लाभ भी हासिल किए गए। शहरी क्षेत्रों में भी उपलब्ध जमीन का उपयोग खाद्य उत्पादन के लिए हो सके व इस तरह के खाद्य संकट का समाधान हो सके इसका सफल व गंभीर प्रयास हुआ। इसके साथ ही विभिन्न देशों में अमेरिकी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बढ़ते असर से जो दुष्परिणाम लोगों को भुगतने पड़ रहे थे, उसके कारण क्यूबा के अलावा कई अन्य देशों में भी मांग उठने लगी कि वे अधिक स्वतंत्र आर्थिक नीतियां अपनाएं। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष द्वारा थोपी गई नीतियों, विश्व व्यापार संगठन के समझौतों और मुक्त व्यापार की धारणा के विरुद्ध जन आक्रोश बढ़ रहा था। लोग सवाल उठा रहे थे कि जब उनकी आर्थिक कठिनाइयां बढ़ रही हैं तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों को प्राकृतिक संसाधनों की लूट की अनुमति क्यों मिली हुई है। वर्ष 2000 में नए दशक की शुरुआत से इस बढ़ते आक्रोश की अभिव्यक्ति जगह-जगह नजर आने लगी। बोलीविया में पानी के निजीकरण के विरुद्ध सफल संघर्ष विश्व स्तर पर चर्चित हुआ। इक्वाडोर के मूल लोगों के विरोध ने वहां बाजारवाद और निजीकरण से जुड़ी सत्ता को हिला दिया। इस बीच क्यूबा के अलावा वेनेजुएला भी अमेरिका से स्वतंत्र अर्थनीति और कूटनीति के एक केंद्र के रूप में उभरा। वेनेजुएला तेल का एक बड़ा भंडार है। लिहाजा अमेरिका की यहां कड़ी नजर रहती है। वहां ह्यूगो शावेज को राष्ट्रपति पद से हटाने के लिए तख्तापलट का एक प्रयास भी हुआ, पर जनशक्ति व जनआंदोलनों के बल पर इस प्रयास को विफल कर दिया गया। साथ ही शावेज फिर से राष्ट्रपति पद पर काबिज होने में सफल रहे। कुछ देशों में ऐसे जन आंदोलन भी देखे गए, जिन्होंने बाजारवाद व निजीकरण से जुड़ी सरकारों को अपने अनुचित निर्णय वापस लेने के लिए मजबूर किया। समय की इस मांग को पहचानते हुए कई राजनेताओं ने भी ऐसे निर्णय लेने शुरू किए, जिससे प्राकृतिक संसाधनों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नियंत्रण को ढीला किया जा सके और इनसे प्राप्त आय का बेहतर उपयोग आम लोगों के हित में किया जा सके। इस तरह के निर्णय लेकर तेल व गैस संसाधनों वाले देश विशेषकर वेनेजुएला और इक्वाडोर में जनसुविधाओं जैसे शिक्षा व स्वास्थ्य को बेहतर करने में काफी सफलता पाई गई। बोलीविया भी इसी राह पर आगे बढ़ा, लेकिन साथ ही उसने कुछ और बुनियादी मुद्दों को आगे बढ़ाया। बोलीविया ने प्रकृति के प्रति दृष्टिकोण बदलने के लिए जोर दिया ताकि प्रकृति की रक्षा के अनुकूल नीतियां बन सकें। नदियों, पर्वतों, वनों को भी रक्षा का अधिकार है व इसे संविधान में समुचित ध्यान देने की पहल बोलीविया ने की है। इसका स्वागत दुनिया के अनेक पर्यावरणविदों ने किया। इक्वाडोर ने भी इस दृष्टिकोण को आगे बढ़ाया। इक्वाडोर ने इस दृष्टि से भी अनुकरणीय उदाहरण साामने रखा कि अर्थव्यवस्था में जरूरी बदलाव कर आम लोगों के बेहतर जीवन के लिए अधिक आर्थिक संसाधन कैसे प्राप्त किए जा सकते हैं। यहां की सरकार ने विदेशी तेल कंपनियों से अनुबंध नए सिरे से तैयार किए, जिससे तेल की बिक्री से मिलने वाला सरकार का हिस्सा बहुत बढ़ गया। इस तरह शिक्षा और स्वास्थ्य सभी तक पहुंचाने के लिए धनराशि की उपलब्धता तेजी से बढ़ाई गई। इसके अलावा कॉरपोरेट सेक्टर विशेषकर बड़ी कंपनियों से उनके मुनाफे संबंधी विस्तृत जानकारी ली गई और इसके आधार पर सावधानी से प्रत्यक्ष करों व कॉरपोरेट टैक्स को इस तरह बढ़ाया गया, जिससे निवेश पर भी कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ा। इस तरह उन आलोचकों की भी हवा निकल गई, जो कह रहे थे कि ये कंपनियां टैक्स बढ़ते ही देश छोड़ देंगी। जहां एक ओर जनपक्षीय राह तलाश रही कुछ सरकारों को सफलताएं मिल रही हैं, वहीं दूसरी ओर यह डर भी बढ़ रहा है कि क्षेत्र पर अपना वर्चस्व नए सिरे से बढ़ाने के लिए अमेरिका कही कोई आक्रामक कार्रवाई न कर दे। विशेषकर वेनेजुएला के संदर्भ में यह डर कई बार व्यक्त किया गया है कि वहां के राष्ट्रपति शावेज को हटाने के लिए अमेरिका ने पहले भी प्रयास किया है और यह प्रयास दोहराए जा सकते हैं। इस स्थिति में स्वतंत्र राह अपनाने वाली सरकारों में या इस राह पर चलने की इच्छुक सरकारों में एक-दूसरे से सहयोग बढ़ाने की जरूरत महसूस की जा रही थी। इस सोच को आगे बढ़ाते हुए दिसंबर 2011 के लैटिन अमेरिका और कैरेबियन क्षेत्र के 33 देशों के राज्याध्यक्षों ने मिलकर एक नए संगठन कम्युनिटी ऑफ लैटिन अमेरिकन एंड कैरेबियन स्टेट्स की स्थापना की है। इसका पहला शिखर सम्मेलन दिसंबर के पहले सप्ताह में वेनेजुएला की राजधानी कराकस में आयोजित किया गया। अगर इन देशों का आपसी सहयोग बढ़ता गया तो जनपक्षीय नीतियां अन्य देशों में फैलने की संभावना और बढ़ेगी। इन प्रयासों का विश्व के अन्य देशों के लिए महत्वपूर्ण सबक यही है कि स्थितियां कितनी भी प्रतिकूल हों पर जनशक्ति के उभार से बड़े बदलाव लाए जा सकते हैं। यदि विभिन्न देशों के राजनीतिक दल व नेता आम लोगों की आकांक्षाओं को समय पर पहचान कर अपनी नीतियों व निर्णयों को सुधारें तो यह बदलाव और अधिक दृढ़ हो सकता है। आगे चलकर विभिन्न पड़ोसी देश आपसी सहयोग से अपनी स्थिति और मजबूत कर सकते हैं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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