Friday, February 24, 2012

अमेरिका की दुखती रग



 पाक सेना पूर्व सैन्य तानाशाह जिया उल हक द्वारा पाकिस्तान की राजनीति में लाई गई घोर कट्टरपंथी विचारधारा के पोषक अफसरों के प्रभाव में है। जनरल जिया उल हक पाकिस्तान के असैन्य प्रधानमंत्री ज़ुल्फिकार अली भुट्टो द्वारा शुरू किए गए परमाणु कार्यक्रम को ले उड़े थे और इस्लामी संगठन ओआइसी में पाकिस्तान की सर्वोच्चता के प्रति समर्थन जुटाने के लिए उन्होंने इस्लामी बम की वकालत करनी शुरू कर दी थी। ऐसा नहीं कि अमेरिका को पाकिस्तान सेना की इस्लामी कट्टरता के बारे में कुछ पता नहीं था। पाकिस्तान में अरबी वहाबी कट्टरवाद की शुरुआत करने वाले सैन्य तानाशाह जिया उल हक अफ गानिस्तान में सोवियत कब्जे के खिलाफ लड़ाई के दौरान अमेरिका के पसंदीदा पिट्ठू थे, लेकिन अलकायदा, तालिबान और पाकिस्तानी समाज में जड़ें जमाने वाले दूसरे जिहादी संगठनों के पीछे पाकिस्तान सेना और उसकी आइएसआइ के मंसूबे कुछ और थे। इनका इस्तेमाल तो उत्तर में मध्य एशिया और ओआइसी के भीतर पाकिस्तानी प्रभाव को बढ़ाना था। सोवियत सेनाओं की वापसी के बाद अमेरिका ने अफ गानिस्तान को पूरी तरह उसके हवाले कर दिया था। 26 नवंबर, 2001 को अमेरिका पर अलकायदा के हमले के बाद जार्ज बुश ने परवेज मुशर्रफ से पूछा था कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में आप हमारे साथ हो या हमारे खिलाफ। तब मुशर्रफ ने अपने कोर कमांडरों से सलाह-मशविरा किया और सबने मिलकर अमेरिका का साथ देने और साथ ही आतंकवादियों की मदद करने की दोमुंही साजिश रची। जब अमेरिकी वायुसेना अलकायदा और मुजाहिदीनों के ठिकानों पर बम बरसा रही थी तब पाकिस्तान ने इन संगठनों के सरगनाओं को वहां से बच निकलने में मदद दी। इसी प्रकार अफगानिस्तान में अमेरिकी अभियान के दौरान आइएसआइ ने ओसामा बिन लादेन को तोरा बोरा गुफाओं से बच निकलने में मदद की और झूठा प्रचार किया कि तोरा बोरा में ओसामा बिन लादेन मारा गया। हालांकि ओसामा पाकिस्तान सेना की मेहमानवाजी का आनंद उठा रहा था और पाकिस्तान की एक छावनी में अपने गुर्दे का इलाज करा रहा था। अमेरिकी-पाक संबंधों के ताबूत में यह आखिरी कील थी। ऐबटाबाद में ओसामा बिन लादेन का पता चलना महीनों से चले आ रहे अविश्वास की परिणति थी। यह अविश्वास आइएसआइ की सलाह के बिना ही खुद हासिल की गई खुफिया सूचनाओं के आधार पर बड़े-बड़े आतंकवादी कमांडरों का पता लगाने और उन्हें मार गिराने के लिए अमेरिकी ड्रोनों के हमलों से प्रकट होता है। इससे पाक सेना और आइएसआइ और चिढ़ गई, क्योंकि सीआइए ने अपनी खुफिया जानकारी उसे मुहैया नहीं कराई। अरबों डॉलर की मदद के बदले छोटे-मोटे आतंकवादियों को अमेरिका के हाथ सौंप कर पाकिस्तान सेना किसी तरह अपनी साख बचाती रही। अमेरिकी पाक संबंधों में बिगाड़ तब और बढ़ गया जब वाशिंगटन ने हक्कानी कबीले के नेता सिराजुद्दीन हक्कानी को अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई के साथ बातचीत करने के लिए राजी करने पर जोर डाला। अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों के हटने की तारीख का घोषणा करने की राष्ट्रपति बराक ओबामा की गलती को देखते हुए पाकिस्तान ने वापसी तक इंतजार करने का फैसला किया ताकि वह अफगानिस्तान में अपनी पैठ फिर से बना सके। जब अमेरिकी-पाक संबंधों में दरार चौड़ी हो रही थी तभी पाकिस्तान के सैन्य प्रतिष्ठान ने अपने परमाणु जखीरे की ओर ध्यान खींचने का फैसला किया और स्पष्ट कर दिया कि परमाणु हथियारों से संपन्न पाक को हल्के में लेना एक भूल होगी। लगता है यह चेतावनी अमेरिकियों के सिर से गुजर गई और उन्होंने पाकिस्तान के परमाणु जखीरे की ओर इस संकेत के पूरे असर को नहीं समझा। अमेरिका की यह अनदेखी दुनिया को मंहगी पड़ेगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

No comments:

Post a Comment


Popular Posts

Total Pageviews

Categories

Blog Archive