Tuesday, September 25, 2012

दोस्त हाथों से कत्ल हुआ

प्रेम की भूतकथा
विभूति नारायण राय




बचपन में नानी के सुने किस्सों में आने वाले भूत बहुत वाचाल होते थे। वे वक्त-बेवक्त कभी भी बोल सकते थे। न सिर्फ बोल सकते थे बल्कि बोलते थे और खूब बोलते थे। शायद यही वजह है कि जिन भूतों से मेरी दोस्ती होती है वे सभी खूब बोलते हैं। उन्हें चुप कराना मुश्किल हो जाता है। बचपन में मैं भूतों से डरता था और उनके डर से बीच में ही जग जाता या भाग कर किसी बड़े की शरण में चला जाता, इसलिए उनसे संवाद बीच में ही टूट जाता। अब डर नहीं रहा इसलिए मेरे साथ भूतों के भी मजे हैं। वे देर तक बोल सकते हैं और मैं सुन सकता हूँ।
भूतों और मँजे हुए किस्सागो में क्या समानताएँ हो सकतीं हैं? मेरी नानी जबरदस्त किस्सागो थीं। मेरी बचपन की स्मृतियों में अपने ननिहाल में बितायी वे रातें अब तक टँगी हैं जिनमें आधा सोते आधा जगते और हुंकारी भरते नानी को घेरे बच्चों में से एक मैंने विलक्षण कहानियाँ सुनीं थीं। ये कहानियाँ साल-दर-साल गर्मियों की छुट्टियों में सुनायी जातीं थीं और इनमें आदि और अंत ही तय होता था, मध्य में हमेशा नये पात्र जुड़ते-घटते रहते थे। पूरा का पूरा कथानक बदल जाता था पर नानी किसी सधे कथाकार की तरह अंत वहीं करती थीं। हर साल और हर चौथी-पाँचवीं रात दुहरायी जाने वाली कहानियों में इन परिवर्तनों से इतनी विविधता भर जाती थी कि हम कभी भी ऊबते नहीं थे और हर बार ऐसा लगने के बावजूद कि कहानी पहले कही जा चुकी है, कोई भी नानी को नहीं टोकता। सारे जोड़-घटाने के बावजूद अंत तयशुदा ही होता।
इसमें नानी की कोई गलती नहीं थी। उनके बचपन में, जब ये कहानियाँ नानी को सुनायी गयी थीं, कहानियों का सुखद अंत रखने का चलन था। सौभाग्य से इन कथाओं के रचयिता आज के उन यथार्थवादियों के चंगुल में नहीं फँसे थे जो जीवन को उसकी खुरदुरी सच्चाइयों के साथ पेश करना चाहते हैं। किस्सागोई की इस परम्परा में पेड़, पौधे, पशु, पक्षी सब हँसते, खिलखिलाते थे, परियाँ, राजकुमारियाँ, राजकुमार उड़नखटोलों पर बैठकर वहाँ तक चले जाते थे जहाँ तक मनुष्य की कल्पना जा सकती थी, लोभी मंत्री और दुष्ट राक्षस हमेशा असफल होकर सजा पाते थे। कहानी का अंत इस सदिच्छा के साथ होता था कि जैसे इस कथा के राजकुमार को उसका राजपाट और राजकुमारी वापस मिल गयी वैसे ही सबको मिल जाये।
आज मैं सोचता हूँ तो लगता है कि कितने अच्छे थे वे दिन। न कहीं भूख थी, न दैन्य, न रोग, न शोक। सब कुछ अच्छा ही अच्छा था। आज के शासकों की तरह उन दिनों के राजा- महाराजा जनता को सिर्फ लूटते नहीं थे। तोता-मैना आसन्न संकट की सूचना पहले ही दे देते थे। कथा के मध्य तक जितना भी रहस्य-रोमांच हो, श्रोता अन्दर से कहीं न कहीं आश्वस्त होता था कि अन्त भला ही होगा। सौभाग्यशाली थीं नानी और उनकी नानी कि उनका परिचय यथार्थवादी कथा लेखकों से नहीं हुआ था। वे अपनी खुशगवार दुनिया में मस्त रहते थे।
मेरे मित्र किस्सागो भूत इतने भाग्यशाली नहीं हैं। उनसे ऐसे समय में मेरा परिचय हुआ जब सुखांतवादी किस्सागोई की परंपरा लगभग खत्म हो चुकी है। अब न परिवारों में किस्से सुनाने वाली दादी-नानी हैं और न इन्टरनेट, टी.वी. में उलझे बच्चों के पास इतना समय कि उन्हें तलाश सकें। ऐसे समय में तो सिर्फ ये भूत ही बचे हैं जो किस्सागोई की परम्परा को बचाये हुए हैं। उनके साथ दिक्कत सिर्फ इतनी ही है कि वे उन्हीं को किस्से सुनाते हैं जिन्हें इनके अस्तित्व में यकीन न हो। जो उनमें विश्वास करते हैं उन्हें तो सिर्फ डराते हैं। मुझे दूसरों से क्या मतलब, मुझे उनके होने में विश्वास नहीं है इसलिए वे मुझे खूब किस्से सुनाते हैं।
भूतों में किस्सागोई की रिले परम्परा है, कम से कम मेरे भूतों में तो है ही। रिले रेस के धावकों की तरह वे अपना हिस्सा दौड़ चुकने के बाद कथा दूसरे व्यास को थमा देते हैं। मजे की बात यह है कि हर व्यास किसी मँजे कथा वाचक की तरह इस तरह कथा कहता है कि लगता ही नहीं कि कोई कथा टुकड़ों में कही जा रही है।
कैप्टन यंग के भूत ने भी इस मुकाम पर पहुँच कर कथा का बेटन दूसरे भूत को थमा दिया। मैं उसका साथ छोड़ना नहीं चाहता था। पिछले कई दिनों से वह मेरे साथ था। उठते, जागते, सोते, जागते का साथी था कप्तान। उसका अरबी घोड़ा, लाल फौजी जैकेट, कानों को छोपते हुए उसके गलमुच्छे, उन्नत ललाट, चौड़ा वक्ष और इन सबसे अधिक मेरे कानों में फुसफुसाती उसकी मीठी आवाज - इन सबसे बिछुड़ना तकलीफदेह था। लेकिन मैं जानता था कि भूत जब एक बार फैसला कर लेते हैं तो फिर उन्हें डिगाना बड़ा मुश्किल होता है। इस भूत ने साथ छोड़ने की जो वजह बतायी वह बड़ी अजीब थी।
कैप्टन यंग ने तीसरी गोरखा पलटन खड़ी की थी। इसलिए आज तक अपने को उसका जनक मानता है। हर सुख-दुख में वह उसके साथ रहता है। पलटन जहाँ कहीं तैनात हो वह उसी के आस-पास मँडराता रहता है। सारे युद्धों में जहाँ तीसरी गोरखा लड़ी है वह रणभूमि के पास किसी ऊँचे दरख्त या खंडहर के ऊपर बैठकर अपने लड़कों को बहादुरी से लड़ते देखता रहा है। जब कभी लड़के जीते हैं उसने जम कर उनके साथ मधु पिया है और झूम कर झामरे नाचा है। लड़कों की हार पर महीनों उदास बेचैन इधर-उधर भटका है। पूरे चाँद की रात वह जरूर मलिंगर के खण्डहरों में अपना घोड़ा दौड़ाता है लेकिन बाकी सारा वक्त तो वह तीसरी गोरखा की लाइन में, बैरकों या मेसों के कोने-अँतरे में ही बिताता है।
इस तीसरी गोरखा पलटन के सार्जेंट मेजर एलन को वह कैसे अकेला छोड़ सकता था? भले ही एलन उसकी पलटन में सिर्फ दो-ढाई साल ही रहा हो, पर रहा तो था। रेजिमेंट की परम्परा थी कि एक बार जो उसका हुआ हमेशा के लिए हो कर रह गया। इसलिए जैसे ही उसे एलन के मुसीबत में होने का पता चला वह भागता हुआ देहरादून की अदालत में पहुँचा। अदालत के रोशनदान से लटके-लटके उसने पूरे मुकदमे की कार्यवाही देखी थी। पूरी कार्यवाही में एलन जिस बहादुरी से तन कर खड़ा रहा उस पर कैप्टन यंग को आज भी गर्व है। ऐसा सिर्फ वही कर सकता है जिसका ताल्लुक तीसरी गोरखा पलटन से रहा हो।
कैप्टन यंग ने मुझे वह प्रसंग कितनी बार सुनाया था जिसमें वकील बार-बार एलन से पूछता था कि शाम सात-साढ़े सात बजे से आधी रात तक वह कहाँ था और एलन हर बार एक ही जवाब देता था कि उसे याद नहीं। चिढ़कर वकील एलन को पुलिस के सामने दिये बयान की याद दिलाता था कि वह इस बीच किसी लड़की के साथ था लेकिन उसका नाम नहीं बतायेगा। इस पर हर बार एलन खामोश हो जाता और वकील या जज के बार-बार पूछने पर भी कोई जवाब नहीं देता था।
कैप्टन यंग का मन अदालती कटघरे में खड़े एलन का माथा चूम लेने का करता रहा। उस क्षण उसे भूत होने पर अफसोस हुआ पर इस बात पर गर्व भी कि उसने तीसरी गोरखा को ऐसी शानदार परम्परा दी है कि उसमें कुछ दिन काटने वाला भी फाँसी चढ़ सकता था पर कोई ऐसा काम नहीं कर सकता था जिससे किसी भद्र महिला की प्रतिष्ठा खतरे में पड़ जाये। विक्टोरियन नैतिकता की यह मिसाल सिर्फ उसके लड़के ही पेश कर सकते थे। एलन को फाँसी की सजा सुनाते हुए जज को कैप्टन यंग ने देखा था और यह भी देखा था कि कैसे सजा सुनते समय एक क्षण के लिए एलन का चेहरा स्याह हुआ और फिर कैसे निर्विकार हो गया। उसके ओंठों पर खेलने वाली भोली-भाली मुस्कान कैसे क्षण भर में ही वापस आ गयी, यह भी यंग को याद है। पर इस मुकदमे के दौरान और उसके बाद से आज तक उसे यह जानने की उत्सुकता बनी हुई है कि क्या एलन सचमुच हत्यारा था। उसने बहुत कोशिश की लेकिन सच्चाई का पता नहीं लगा सका। पूरे मसूरी में पागलों की तरह वह भटका है, हर उस किसी की जिससे एलन का सम्बन्ध हो सकता था, उसने जासूसी की है, उन दिनों वह घंटों पब्लिक लाइब्रेरी में बैठा है और मसूरी से छपने वाले मसूरी टाइम्स और बाहर से आने वाले स्टेट्समैन में इस हत्याकाण्ड को लेकर छपने वाली बहसों को पढ़ा है, लेकिन अंतिम सच तक नहीं पहुँच पाया है। इसी सच की तलाश में वह उस भूत तक पहुँचा था जिसके बारे में उसे पूरा यकीन था कि वह घटना का चश्मदीद गवाह हो सकता था। हालाँकि कैप्टन यंग पूरी कोशिश करके भी उससे कुछ उगलवा नहीं पाया था पर एक मनुष्य के रूप में शायद मैं कामयाब हो सकूँ। इसीलिए वह मुझे इस नये भूत से मिलवाने के लिए तैयार हो गया। शर्त सिर्फ इतनी थी कि अगर मैं सफल हुआ तो मुझे कैप्टन यंग को सच्चाई से अवगत कराना होगा।
कथा के जिस मोड़ पर वह मुझे पहुँचाकर छोड़ रहा था वहाँ बहुत-से ऊबड़-खाबड़ रास्ते थे। मैं समझ नहीं पा रहा था कि कथा अपनी तार्किक परिणति तक कैसे पहुँचेगी? यह स्पष्ट हो गया था कि यंग खुद जानना चाहता है कि एलन हत्यारा था या नहीं। वह तो उगलवा नहीं पाया पर शायद एक मनुष्य यानी मैं दूसरे भूत से सच मालूम कर सकूँ। पूरे विश्वास से तो नहीं कह सकता लेकिन शायद यही कारण था कि यंग ने मेरा साथ छोड़ दिया। जाने से पहले वह मुझे जिसके हवाले कर गया वह भी कुछ कम दिलचस्प किस्सागो नहीं था।
इस बार का किस्सागो था नहीं, थी। दरअसल यह भूत एक स्त्री का था। मैंने पहले ही अपने पाठकों से निवेदन किया था कि लैंगिक भेदभाव से भरे हमारे समाज में स्त्री का शरीर अक्सर गाली-गलौज के काम आता है। हम शायद ही किसी पुरुष को गाली देते समय "भूत" शब्द का इस्तेमाल करते हों, पर "भूतनी" स्त्रियों के लिए जरूर गाली देने के काम आती है। जो भूत मेरे लिए इतने मित्रवत हैं उन्हें कोई ऐसा संबोधन देने की मैं कैसे सोच सकता हूँ जिससे वे अपमानित महसूस करें? आप कह सकते हैं कि भूत तो मान-अपमान और प्रेम-घृणा इन सबसे ऊपर होते हैं। कोई गाली उन्हें नहीं व्यापेगी। पर मैं नहीं मानता। भूतों के अपने लम्बे अनुभव से मैं कह सकता हूँ कि कोई भी भूत अपनी वर्तमान योनि में मान-अपमान और प्रेम-घृणा से उतना ही प्रभावित होता है जितना जीवित अवस्था में होता था। इसलिए मैं व्याकरण दोष अपने मत्थे लेते हुए अपनी इस नयी मित्र को भूत ही कहूँगा, भूतनी नहीं।
कैप्टन यंग ने जब इस भूत से मुझे मिलवाया, उसे नहीं पता था कि मेरी इससे पहले ही मुलाकात हो चुकी है।
मेरी यह नयी मित्र मैडम रिप्ले बीन थी और कैप्टन यंग की तरह इससे भी मेरी मुलाकात माल रोड पर ही हुई थी। जिस दुकान पर कैप्टन यंग मुझे मिला था उसी के बगल में एक किताबों की दूसरी दुकान थी। यह फुटपाथ पर लगने वाली एक छोटी-सी दुकान थी। दो बड़ी दुकानों की सीढ़ियों को इस तरह घेरकर कि उनमें जाने वालों को दिक्कत न हो, एक काम चलाऊ दुकान निकाली गयी थी। यह पुरानी किताबों की दुकान थी - बिल्कुल उसी तरह की जैसी दिल्ली में दरियागंज के फुटपाथों पर दिखती है। या फिर अक्सर मसूरी जैसे हिल स्टेशनों पर दिखाई देती है। इन पर व्यक्तिगत संग्रहों या पुराने पुस्तकालयों से औने-पौने भावों पर बेची गयी किताबें, बड़े-बड़े एटलस, विश्वयुद्धों की सचित्र गाथाएँ या बच्चों के कामिक्स बिकते रहते हैं। मुझे अक्सर इन्हीं दुकानों पर दुनिया भर की बेहतरीन किताबें मिली हैं। इसीलिए मैं जब भी किसी नये शहर में घूम रहा होता हूँ तो मेरा काफी वक्त इन दुकानों पर भी बीतता है।
मसूरी में मेरा यह दूसरा दिन था और पिछली रात मैंने जग कर गोरखों के बारे में पढ़ा था और डायरी पढ़ते-पढ़ते मैं कब सोया मुझे याद नहीं था। थकान और अनिद्रा से मेरा सर फटा जा रहा था। बाहर हल्की गुनगुनी धूप खिली थी। हल्का नाश्ता करके मैं माल रोड पर निकल आया। बाहर शायद सूकून मिल सके या कुछ देर टहलकर मैं खुद को इतना थका सकूँ कि दोपहरी में भी थोड़ी देर नींद आ जाये। मैं यही सब सोचकर बाहर निकला था।
माल रोड पर मजे की भीड़ थी। मैं कई सालों बाद मसूरी आया था और मेरी स्मृति में तब की मसूरी थी जब सड़कों पर इतनी भीड़ नहीं होती थी। रात होते ही शहर सूना हो जाता था। इस बार सब कुछ बदला-बदला सा था। बाजार लोगों से पटे थे। स्थानीय लोगों के अलावा काफी सैलानी सड़क पर थे। इस समय तो हल्की धूप की वजह से और ज्यादा लोग मटरगश्ती कर रहे थे। धूप गुनगुनी थी और अच्छी लग रही थी। एहतियातन कुछ लोगों ने भारी गर्म कपड़े पहन रखे थे पर मसूरी की ढलान और चढ़ाई वाली सड़कें धूप में चलने वालों के माथों पर पसीना चुहचुहा रही थीं। मैं भी उन्हीं में से एक था। मुझे पता था कि पहाड़ों पर मौसम कितना दगाबाज हो सकता है। कब मौसम का मिजाज बदल जाए और सूरज को ढँकते हुए बादल मसूरी की पहाड़ियों को ढँक लें, इसे कोई भी नहीं बता सकता। जरा तेज हवा या हल्की बारिश कँपकँपाती ठंड का सबब बन सकती है। इसीलिए मैंने भी कोई जोखिम नहीं लिया था और ढेर सारे ऊनी कपड़े पहने हुए था। धूप में थोड़ी देर चलने पर मुझे गर्मी-सी लगने लगी और मैं कहीं रुक कर सुस्ताना चाहता था कि तभी मुझे फुटपाथ की यह दुकान मिल गयी।
इसी दुकान पर मिस रिप्ले बीन से मेरी मुलाकात हुई। यह मुलाकात इतनी अचानक थी कि मुझसे छूट भी सकती थी। दुकान पर बहुत-सी पुरानी किताबें थीं। डिकेंस, हेमिंग्वे, शेक्सपियर, चेखव, गोर्की, टालस्टॉय, आर्थर कानन डायल जैसे बहुत-से बड़े नाम थे जो इस तरह की दुकानों पर अक्सर मिल जाते थे। मेरी निगाहें जिस पर टिकीं वह एक अद्भुत खजाना था। "द इंटरनेशनल लाइब्रेरी ऑफ फेमस लिटरेचर" के सात खण्ड एक तरफ पड़े थे। मैंने पहला ही खण्ड उठाया कि मेरा शरीर खुशी से उत्तेजित हो उठा। मैं उन्हें लेकर फुटपाथ के एक किनारे जमीन पर बैठ गया। सन 1900 में बीस खण्डों में छपी इस श्रृंखला में उस समय तक यूरोपीय भाषाओं में जो कुछ श्रेष्ठ छपा था, उपलब्ध था। इस तरह के दुकानदार गुणी ग्राहकों को फौरन ताड़ लेते हैं। यह दुकानदार भी अपने दूसरे ग्राहकों को निपटाते-निपटाते मुझ पर उचटती निगाहें डालता रहा और फुटपाथ पर फैली अपनी किताबों के बगल में रखे बक्से में से निकाल कर श्रृंखला की पाँच किताबें और मेरे पास रख गया।
"और भी है। आप इन्हें देखिए, मैं अभी निकालता हूँ।"
उसे शेष खण्ड निकालने की जरूरत नहीं पड़ी। आठवें खण्ड में मुझे वह पर्चा मिल गया जिसने रिप्ले बीन से मेरी मुलाकात करायी थी।
सारे खण्ड बुरी हालत में थे। ऐसा लगता था कि बहुत दिनों तक किसी बक्से में धूप और हवा से वंचित ये किताबें सिर्फ कबाड़ी को बेचने के लिए ही निकाली गयी थीं और छपने के लगभग अस्सी साल बाद ये मसूरी के इस फुटपाथ पर बिकने आयी थीं। नुची-चुथी, जगह-जगह से उखड़ी जिल्दों और पीले पड़ चुके पन्ने वाली इन किताबों में जिस किसी का पहला पृष्ठ सुरक्षित था उस पर बड़े कलात्मक ढंग से पुस्तक के मालिक के हस्ताक्षर और खरीदने की तारीख अंकित थी। हस्ताक्षर इतने स्पष्ट थे कि उन्हें पढ़ने में कोई दिक्कत नहीं हो सकती थी। ऐसा लगता था कि किसी ने निब को काली स्याही में डुबोकर बडे सुरुचिपूर्ण ढंग से लिखा था - रिप्ले बीन। शुरुआत में अर्द्ध गोलाकार आर और अंत में एक लम्बी सीधी रेखा के साथ खत्म होता एन। जितनी किताबों पर हस्ताक्षर थे वे सब एक ही जैसे सधे और सुघड़ थे ।
पुरानी कहावत है कि आप लिखावट से लिखने वाले के व्यक्तित्व का अंदाज लगा सकते हैं। खास तौर से हस्ताक्षर किसी व्यक्ति को समझने में बड़ी मदद करते हैं। काली स्याही में डुबोकर निब से सुघड़ता से अंकित रिप्ले बीन। एक कलात्मक और अपने में मस्त छवि वाला चेहरा सामने कौंधा। दर्प की हदों को छूने वाला आत्मविश्वास पर किसी को टूट कर प्यार करने को मचलता दिल भी।
मैं अलग-अलग खण्ड़ों के प्रथम पृष्ठ पर उपलब्ध हस्ताक्षरों को ध्यान से देखकर रिप्ले बीन की छवि उकेरने की कोशिश कर ही रहा था कि द "इंटरनेशनल लाइब्रेरी ऑफ फेमस लिटरेचर" के चौथे खण्ड के पीले जर्जर पृष्ठों में से किसी डायरी के पन्ने को आधा फाड़कर उस पर एक पंक्ति में लिखा गया वह पुर्जा गिरा जिसने रिप्ले बीन में एकदम से मेरी दिलचस्पी बढ़ा दी।
नो रिग्रेट्स माय लव - एक पंक्ति किसी मोटी नोक वाली कलम से लिखी गयी थी। कागज पूरी तरह से पीला पड़ गया था। उसे दो बार तह कर मोड़ा गया था और न जाने कितने बरसों बाद सीधा किया जा रहा था। जरा-सी असावधानी से वह किसी कड़ी सतह वाली धातु-सा टूटकर चार टुकड़ों में तब्दील हो सकता था। मैंने पूरी सावधानी से उस पर हाथ फेरकर उसे सीधा करने की कोशिश की। जहाँ-जहाँ से कागज मुड़ा था वहाँ-वहाँ उसमें गहरी दरारें पड़ गयी थीं। ऊपर की दाहिना बाजू वाली दरार में धुँधली-सी कोई संख्या दिख रही थी। गौर से देखने पर समझ में आया कि खत लिखने की तारीख थी। दिन और महीना तो इतना धुँधला गये थे कि बड़ी कोशिशों के बावजूद भी मैं उन्हें नहीं पढ़ सका। सन का अंदाजा लगते ही मेरा पूरा शरीर झनझना उठा। सन 1910 यानी जिस सन में एलन को फाँसी हुई थी। मैंने अपनी सारी इन्द्रियों को एकाग्र करते हुए कागज के निचले हिस्सों में छिपे उन अक्षरों को पढ़ने की कोशिश की जिनमें पत्र लेखक का नाम छिपा था। पाँच अक्षरों में सिर्फ बीच में एक ई ही पढ़ा जा सकता था। हे भगवान... क्या यह एलन था ? ए एल एल ई एन! सचमुच यह तो एलन का ही खत था। रिप्ले बीन की हस्तलिपि से उलट यह किसी कम पढ़े-लिखे और उतावले व्यक्ति द्वारा मोटी नोक वाली कलम से लिखी गयी पंक्ति थी। अगर यह 1910 में लिखा गया था तो निश्चित रूप से मरने के कुछ पहले नैनी जेल से उसने लिखा था। पर यह खत रिप्ले बीन तक कैसे पहुँचा ? कौन है या कौन थी ये मिस रिप्ले बीन ? मेरे अंदर का खोजी पत्रकार बेचैन होने लगा।
सर्दियों की शाम धीरे-धीरे रात में तब्दील हो रही थी। बूँद-बूँद कर टपकते हुए सर्द कोहरे ने स्ट्रीट लाइट और दुकानों के बाहर लगे बल्बों की रोशनी को इतना कमजोर कर दिया था कि अब थोड़ी दूर की चीजों को देखने के लिए भी अनुमान का सहारा लेना पड़ रहा था।
रिप्ले बीन की गुत्थी सुलझाने का प्रयास करते हुए मैंने चारों ओर देखा। जिस छोटे-से बरामदे की सीढ़ियों पर किताबें फैली हुई थीं उसमें तेज वाट के बल्ब जल रहे थे, लेकिन कोहरे के तैरते हुए बादल बरामदे के अंदर घुस आये थे और रोशनी के कमजोर चकत्ते किताबों पर पड़ जरूर रहे थे पर उन्हें पढ़ना मुश्किल लगने लगा था।
कुछ दूर सीढ़ियों पर उकड़ूँ बैठा दुकानदार मुझे ही एकटक देख रहा था। मैं "द इंटरनेशनल लाइब्रेरी ऑफ फेमस लिटरेचर" के खण्डों में इस कदर उलझा हुआ था कि मुझे पता ही नहीं चला कि कब उसने अपनी ज्यादातर किताबों को समेटकर दो बड़े-बड़े बक्सों में भर लिया था और कब उसकी इस फुटपाथी दुकान पर अकेला ग्राहक मैं ही रह गया था। थोड़ी-सी किताबें उसके पैरों के पास पड़ीं थीं जिन्हें वह समेट जरूर रहा था पर उसकी निगाहें मुझ पर ही गड़ी थीं। शायद वह तौल रहा था कि मैं कुछ खरीदूँगा भी या सिर्फ किताबें उलट-पुलट कर अपना वक्त काट रहा था।
रिप्ले बीन के बारे में वही मुझे बता सकता था।
मैंने "द इंटरनेशनल लाइब्रेरी ऑफ फेमस लिटरेचर" के सातों खण्डों को एक के ऊपर एक रखते हुए पूछा -
"बाकी कहाँ मिलेंगे?"
"बस ये ही हैं। सात खण्ड ही छपे हैं।"
"अरे नहीं भाई, बीस खण्डों में छपी है यह श्रृंखला। बाकी भी रिप्ले बीन के यहाँ होंगी।"
दुकानदार ने चौंक कर देखा -
"वे होंगी तब तो मिलेंगी। मिलेंगी तो मेरे यहाँ ही... आप सात वाल्यूम ले जाओ। मैं दो-एक दिन में बाकी भी ले आऊँगा।"
मैं समझ गया। वह मुझे तौल रहा था। मैं कुछ खरीदूँगा भी या सिर्फ बहानेबाजी कर निकल भागना चाहता हूँ। फुटपाथ की दूकानों पर जहाँ खिड़कियाँ नहीं होतीं वहाँ भी विन्डोशापिंग खूब होती है। लोग घंटों किताबें देखते हैं फिर कोई न कोई बहाना बना कर उठ जाते हैं। कई बार तो बहाने की भी जरूरत नहीं होती। घंटों किताबें उलटने-पुलटने के बाद कोई अगर किताबों को बेतरतीबी से उनके ढेर में वापस रखते हुए उठने लगता है तब इस आदमी के पास बेचारगी से उसे घूरने के अलावा और क्या चारा रह जाता है!
"रिप्ले बीन क्या मसूरी में रहतीं हैं?"
"उन्हें मरे तो कई साल हो गये।"
उसने जिस बेरुखी से जवाब दिया था उससे स्पष्ट हो गया था कि वह रिप्ले बीन का पता मुझे नहीं बताना चाहता था। उसने धीरे-धीरे बाकी किताबों को भी बक्सों में भरना शुरू कर दिया। उसका हाथ मेरे पास पड़े सात खण्डों तक पहुँच चुका था। अगर एक बार किताबें उसके बक्से में चली जातीं तो संभव था कि उससे मेरा संवाद ही खत्म हो जाता और खत्म हो जाती रिप्ले बीन को ढ़ूंढ़ने की उम्मीदें। मैंने किताबों को अपने पास समेट लिया।
"कितने में दोगे?"
दुकानदार के चेहरे का तनाव ढीला पड़ने लगा। उसने मुझे किताबों की कीमत बतायी। इस तरह की खरीदारी के मेरे अनुभव ने मेरे मुँह से जो कीमत बुलवाई वह दुकानदार की कही राशि की तिहाई से भी कम थी। वह भी इस मोल-तोल का अभ्यस्त था। बिना किसी झुँझलाहट या अधैर्य के वह राशि घटाता-बढ़ाता रहा। अंत में पुरानी बोली के आधे पर सौदा तय हो गया। मैंने जेब से रुपये निकालते हुए फिर पूछा -
"रिप्ले बीन कहाँ मिलेंगी?"
दुकानदार चुप रहा। पैसा उसके हाथ में पकड़ाते हुए मैंने अपना सवाल दुहराया। पैसा हाथ में लेने के बाद उसने जवाब दिया -
"उन्हें मरे कई साल हो गये।"
"अरे नहीं भाई... मैं जब मिला था तब तो ठीक लग रहीं थीं।"
"कब मिले थे आप?"
दुकानदार ने ध्यान से मुझे देखा। मुझे लगा कि मेरा झूठ पकड़ा गया। मैंने धीमी आवाज में कहा -
"काफी पहले।"
"मैडम को मरे कई साल हो गये।" उसने बात नहीं बढ़ा।
"उनके पास पुरानी किताबों का खजाना था। शायद उनके बाप का रहा हो। बुढ़ऊ को मैंने देखा नहीं था पर मैडम बताती थीं कि उन्हें पढ़ने का बहुत शौक था। स्काटलैण्ड से जवानी में ही आ गये थे व्यापार करने, फिर लौट कर नहीं गये। यहीं गोरा कब्रिस्तान में दफन हैं। मैडम की बड़ी इच्छा थी कि उनके बगल में मिट्टी मिले लेकिन ईश्वर को कुछ और मंजूर था। जब हम लोग उन्हें ले कर गये तो बगल में जगह कुछ कम पड़ गयी और फिर उनके लिए थोड़ी दूर कब्र खोदनी पड़ी।"
दुकानदार रौ में आ गया था। शायद उन सात खण्डों की बिक्री ने उसके अंदर जोश भर दिया था। अब उसे किताबें समेटने की जल्दी नहीं लग रही थी। मैंने भी उसे नहीं रोका।
"मैं बचपन से मैडम के पास जाता रहता था, पहले बाप के साथ, फिर अकेले। मेरा बाप उनसे घंटों चिरौरियाँ करता तब वे कोई किताब बेचने के लिए तैयार होतीं। कहतीं, पापा डाँटेंगे।"
"तुमने उनके पापा को देखा था?"
"नहीं...। जब मैंने जाना शुरू किया पापा को मरे कई साल हो गये थे। पर वे रोज आते थे और मैडम बूढ़ी होने को आयी थीं लेकिन उन्हें बुरी तरह डाँटते थे।"
अरे ये तो भूत का मामला है... मेरे कान खड़े हो गये। मेरे भीतर की सारी इन्द्रियाँ चौकन्ना हो गयीं। रिप्ले बीन के पापा से दोस्ती हो सकती है... या फिर हो सकता है कि रिप्ले बीन से ही दोस्ती हो जाए। मुझे एक अदद फोटो चाहिए थी। दोनों में से किसी एक की।
"तुम्हारे पास उनकी कोई फोटो होगी?"
"किसकी?"
"रिप्ले बीन मैडम की या फिर उनके पापा की।"
दुकानदार ने आश्चर्य से मुझे देखा।
"फोटो मेरे पास कहाँ से आयेगी और फिर फोटो का आप करोंगे क्या?"
मैं उसे समझा नहीं सकता था। अगर मैं कहता कि मेरी भूतों से दोस्ती हो जाती है और दोस्ती शुरू करने के लिए जरूरी है कि मुझे जीवित अवस्था की उसकी फोटो मिले तो वह निश्चित रूप से मुझे पागल समझता।
मैंने सात खण्ड एक साथ खरीदे थे। निश्चित रूप से उसे अच्छी-खासी आय हुई थी और शायद यही कारण था कि जितनी देर उसने किताबें समेटीं और अपना बक्सा बन्द किया वह लगातार रिप्ले बीन, जिन्हें वह "मैडम" कह रहा था, के बारे में बोलता रहा।
उसके मुताबिक वह अपने बाप के साथ मैडम के यहाँ जाया करता था। उसका बाप पुरानी किताबों का मसूरी का सबसे जानकार विक्रेता था। वह भी इसी जगह पर दुकान लगाता था। बेटे के मुताबिक बाप को शहर के उन सारे बूढ़े-बूढ़ियों के नाम-पते याद थे जिनके यहाँ किताबों के खजाने गड़े हुए थे। इस सूची में सबसे ऊपर थीं रिप्ले बीन मैडम जिनके पास बेमिसाल किताबें थीं। बाप ने पहली बार ही आलमारियों में सलीके से लगी किताबों पर विस्फारित नेत्रों से निगाहें दौड़ायी थीं। पहली नजर में ही उसने जान लिया था कि अनमोल खजाना है बुढ़िया के पास और दो-एक मुलाकातों में ही उसे यह भी समझ में आ गया था कि करीने से सजी किताबों में से एक भी खरीदना बहुत मुश्किल है।
मैडम किताबें क्यों नहीं बेचना चाहती थीं, इसका जो कारण सर्दी की उस शाम, जब अँधेरा धीरे-धीरे सर्द कोहरे के रूप में टपक रहा था, उसने मुझे बताया वही रिप्ले बीन से मेरी दोस्ती का सबब बना।
पचहत्तर पार कर रही रिप्ले बीन अपने पिता से बहुत डरती थीं। उनके पिता को मरे सालों हो गये थे किन्तु अभी भी रिप्ले उनके लिए किसी लापरवाह किशोरी की तरह थीं जिन्हें सीधे रास्ते पर रखने के लिए डाँटते रहना पिता बहुत जरूरी समझते थे। उनकी इस समझ को गलत भी नहीं कहा जा सकता। उनके पिता मसूरी के शुरुआती गोरे बाशिंदों में से थे। मैडम सिर्फ इतना बताती थीं कि कार्डिफ के किसी देहाती इलाके से काफी कम उम्र में ही वे जड़ी-बूटियों की तलाश में मसूरी आये और यहाँ के एकांत और खूबसूरती से इतने प्रभावित हुए कि यहीं के होकर रह गये। सालों उन्होंने पहाड़ों से जड़ी-बूटियाँ तलाशीं और अपने देश भेजते रहे। हर साल सोचते थे कि अगले क्रिसमस में वतन वापस लौटेंगे लेकिन जा कभी नहीं पाये। जड़ी-बूटियों के धंधे में पहले तो खूब कमाई हुई पर बाद में कलकत्ते के बिचौलियों ने धोखा देना शुरू कर दिया। उन्होंने जड़ी-बूटियों का काम छोड़ दिया और दूसरे धंधों पर हाथ आजमाये। हर जगह एक ही कहानी दोहरायी गयी। शुरू में तो हर बार फायदा होता लेकिन बाद में कभी कोई पार्टनर धोखा दे देता तो कभी बाजार टूट जाता तो कभी कलकत्ते से विलायत जाने वाला जहाज दुर्घटनाग्रस्त हो जाता। मैडम की मानें तो उनके पिता व्यापार करने लायक ही नहीं थे। जो आदमी दिन का अधिकांश समय किताबों के साथ बिताये वह व्यापार में घाटा नहीं तो और क्या पायेगा। बहरहाल मैडम कुछ भी कहें, पिता ने व्यापार में इतना जरूर कमाया था कि उन्होंने बारलोगंज की पहाड़ियों पर एक खूबसूरत बँगला बनवाया और उसके लाल खपरैलों से ढँके चौड़े बरामदों में बैठकर वे नीचे दून की घाटी निहारते, दिन में बीयर या रात में व्हिस्की की चुस्की लगाते अपनी किताबों में उलझे रहते।
दुकानदार को उनकी पारिवारिक जिन्दगी के बारे में ज्यादा कुछ नहीं पता था। मैडम ने कभी अपनी माँ के बारे में बताया भी नहीं। शुरू-शुरू में जब अपने बाप के साथ उसने जाना शुरू किया तब उनके साथ उनकी एक कुबड़ी बहन और मानसिक रूप से अविकसित भाई रहते थे। बहन और भाई एक-एक करके मर गये और काफी दिनों तक मैडम अकेली एक नौकर के साथ रहती रहीं।
मैडम अपने पिता से बहुत डरती थीं - यह तो दुकानदार ने शुरू में ही बताया था पर मरने के बाद उनसे मुलाकात कैसे होती थी, यह प्रसंग अभी तक नहीं आया था। मैं साँस रोके उसी प्रसंग का इंतजार कर रहा था।
किस्से में वह मोड़ भी आया जिसमें मेरी दिलचस्पी थी। लगभग रोज रात रिप्ले बीन के सोने के बाद उनके पिता आते। उन्हें बचपन से ही रिप्ले बीन की इस आदत का पता था कि वे रात में अपने ऊपर से कंबल या रजाई फेंक देती है और ठंड में सिकुड़ती रहती हैं। उनकी आदत में शुमार था कि वे रात में दो-एक चक्कर उनके बेड रूम का जरूर लगाते और जमीन पर आधा लुढ़का ओढ़ना ठीक करते, उन्हें अच्छी तरह ढँक कर एक बार उनका माथा सहलाते और फिर चुपचाप कमरे से बाहर निकल जाते। अब रिप्ले बीन बूढ़ी जरूर हो चुकी थीं पर उनकी आदत नहीं बदली थी।
बचपन में तो अक्सर उन्हें पता ही नहीं चलता था कि कब पिता आये, कम्बल उढ़ाया और दबे पाँव वापस चले गये। अब शायद बुढ़ापे में गहरी नींद न आने के कारण उन्हें पिता के आने का पता चल जाता। वे साँस रोके उनकी बड़बड़ाहट सुनती रहतीं। पिता की झुँझलाहट कई चीजों को लेकर थी। इस बात पर नाराजगी तो थी ही कि इतनी उम्रदराज होने के बाद भी रिप्ले रात में ढँग से ओढ़ कर नहीं सोती और उन्हें अब भी उसका बिस्तर ठीक करना पड़ता है, सबसे बड़ी नाराजगी इस बात पर थी कि उन्होंने जो आलीशान कोठी बनवायी थी, उसे बेचकर रिप्ले बीन सर्वेन्ट्स क्वार्टरनुमा दो कमरों के इस मकान में किरायेदार के रूप में रह रही थीं। रिप्ले बीन ने कई बार दबे स्वर में पिता को समझाने की कोशिश की कि अपने नीम पागल भाई और कुबड़ी बहन की देख-रेख के लिए ही उन्हें उस कोठी को बेचकर इस घटिया जगह में रहना पड़ रहा है। पिता कभी इस बात को समझ नहीं पाते थे। वे उनकी सफाई को अनसुना कर बड़बड़ाते और पैर पटकते हुए कमरे के बाहर चले जाते।
जाहिर था कि ये पिता नहीं, उनका भूत था जो बार-बार रिप्ले बीन को सँभालने चला आता था। इसी के डर से वे पुरानी किताबें बेचने से डरतीं थीं। दुकानदार और उनके बाप को जब रिप्ले बीन मैडम ने बताया कि उनके पिता ही रात-बिरात आकर किताबों को झाड़-पोंछ जाते हैं और रैक में से एक भी किताब गायब होने पर उनकी लानत-मजम्मत करते हैं तो उन्होंने इसे बुढ़िया के सनक जाने के तौर पर लिया था, पर मुझे इसमें कोई अस्वाभाविक बात नजर नहीं आयी। भूत तो होते ही भोले और सहृदय हैं। अगर सत्तर के ऊपर पहुँची रिप्ले बीन के पिता का भूत उनकी देख-भाल करता है तो इसमें आश्चर्य क्या था ?
दुकानदार के विस्तार भरे वर्णनों में मुझे सिर्फ एक दिक्कत महसूस हो रही थी। वह उस बिन्दु पर नहीं आ रहा था जिसमें मेरी सबसे अधिक दिलचस्पी थी। यह तो समझ में आ गया था कि रिप्ले बीन को मरे कई साल हो चुके हैं और उनके मरने के बाद ही उनके संग्रह की किताबें इस दुकान पर पहुँची, पर उनका कोई फोटोग्राफ कहीं मिल सकेगा क्या, इसकी भनक वह नहीं लगने दे रहा था।
इसका हल भी निकल आया।
मैंने दुकानदार को आश्वस्त किया कि मुझे वैसी ही किताबों की दरकार है जैसी रिप्ले बीन के पिता पढ़ा करते थे और जो अब उसके कब्जे में है।
ये किताबें उसके पास कैसे आयीं, यह समझना बहुत मुश्किल नहीं था।रिप्ले बीन के मरने के बाद निश्चित रूप से लालची गिद्ध की तरह मँडराने वाले दुकानदार और उसके बाप को मकान मालिक ने पहले भी देखा होगा। रिप्ले बीन के मरने के बाद उनके सामान पर कब्जा करते समय और उन्हें एक-एक करके बेचते समय जरूर वह बड़बड़ाता रहा होगा कि बुढ़िया उसे लूट कर चली गयी। उसका इतना किराया बाकी है कि एक-एक सामान बेचकर भी वह उसकी भरपाई नहीं कर पायेगा। बुढ़िया छोड़ भी क्या गयी है - टूटा-फूटा फर्नीचर और किताबों का कबाड़। यह तो उसे पता ही था कि इन किताबों के लिए मसूरी के ये बाप-बेटे किस कदर चक्कर लगाते रहते थे। दुकानदार के बताये बिना ही मैं जान गया था कि किताबों के रूप में पड़ा कबाड़ वह मकान मालिक को पटाकर उठा लाया था और अब एक-एक करके बेच रहा है।
मैंने उसे समझाया कि मेरी और रिप्ले बीन के पिता की पसंद एक जैसी ही है और मैं उन किताबों को खरीदना चाहूँगा - किसी भी कीमत पर।
किताबें कई सौ की संख्या में थीं। दुकानदार ने उन्हें एक गोदाम में भर रखा था और रोज उनमें से कुछ अपनी जरूरत के मुताबिक निकालकर बेचने ले आता था। उन्हें उठा कर यहाँ तक लाना सम्भव नहीं था, अत: तय यह हुआ कि मैं दूसरे दिन सुबह उसके गोदाम पर पहुँच कर अपनी पसंद की किताबें छाँट लूँगा।
मेरी बहुत कोशिशों के बाद भी उसने मुझे रिप्ले बीन के उस मकान का पता नहीं बताया जहाँ अपने जीवन के आखिरी दिनों में वे रहीं थीं।
इस तरह रिप्ले बीन का कोई फोटो हासिल करने का एक ही उपाय था कि मैं उनकी किताबों के ढेर में से कोई फोटोग्राफ ढूँढ़ निकालूँ और इस तरह उनसे दोस्ती की सूरत बने।
कुछ घंटों की मेहनत के बाद यह सूरत बन भी गयी। दूसरे दिन उसकी बतायी जिस जगह पर मैं पहुँचा वह मसूरी की तंग गलियों में गुजरने के बाद आने वाली एक ऐसी पुरानी इमारत थी जिसके छोटे-छोटे कमरों में दरिद्रता पसरी हुई थी।
दर्जनों कमरों वाली इस इमारत के हर कमरे में एक परिवार बसा था। उस दोपहर जब मैं वहाँ पहुँचा तो सामने पहाड़ियों में एक कमजोर धुँधला-सा सूरज टँगा हुआ था और उसकी पीली धूप के चकत्ते बर्फीली हवाओं के झोंकों से लड़ने की कमजोर कोशिशें कर रहे थे। जहाँ-जहाँ धूप के वृत्त बन रहे थे वहाँ-वहाँ औरतों, बच्चों के झुण्ड बैठ कर सर्दी का मुकाबला करने में लगे थे। सुबह से गर्मी पड़ रही थी और ग्यारह बजते-बजते पहाड़ियों पर बादल भर गये और मूसलाधार बारिश के साथ ठंड झरने लगी थी।
बेतरतीब बिखरे सामान और अचानक सामने आ जाने वाले बच्चों से बचाता हुआ दुकानदार मुझे एक सर्पाकार गलियारे से अंदर ले गया। इमारत की हर दीवार और हर कोने में सीलन भरी हुई थी। सीलन की एक खास तरह की गंध होती है जो लगातार नमी और बारिशों से उपजती है और पहाड़ों में आपकी नाक में देर तक बसी रहती है। यह सीलन उन किताबों में भी रच-बस गयी थी जो अँधेरों की गिरफ्त में कैद एक छोटे-से कमरे में बेतरतीबी से गँजी हुई थी।
थोड़ी देर लगी, आँखों को अँधेरे का अभ्यस्त होने में। हल्का-हल्का दिखने लगा तो मैंने पाया कि सीलन से नम फर्श पर अखबार बिछाकर उस पर किताबें गँजी हुई थीं। किताबों को नमी चाट रही थी। खास तौर से निचली किताबों के पन्ने पीले पड़ गये थे। रिप्ले बीन के पिता का भूत अगर भटक कर यहाँ आ पाया होता तो निश्चित रूप से इस दुकानदार की शामत आ जाती।
मुझे कमरे में छोड़कर दुकानदार बाहर निकल गया। मैंने कमरे में अखबार का एक टुकड़ा तलाशा, उसे कमरे के एक कोने में बिछाया और उस पर पालथी मार कर बैठ गया। मेरे सामने एक अकूत खजाना मौजूद था। कथा, कविता, नाटक, दर्शन, इतिहास, यात्रा वृत्तांत - कितना कुछ था जो मेरे सामने बिखरा पड़ा था। रिप्ले बीन के पिता की रुचि और समझ की दाद देनी होगी। जिस किताब पर हाथ रखता वही मुझे ललचा देती। पर अपने लालच पर नियंत्रण रखना जरूरी था। मैंने तेजी के साथ किताबों को उलटना-पुलटना शुरू किया। लगभग हर किताब के शुरुआती पन्ने पर एक हस्ताक्षर था और उसके नीचे तिथि अंकित थी। हस्ताक्षर थोड़े प्रयास के बाद स्पष्ट हो गया। शायद विलियम नाम था रिप्ले बीन के पिता का जिन्होंने पहले पृष्ठ पर हस्ताक्षर कर उसके नीचे किताब को हासिल करने की तारीख दर्ज कर रखी थी। कुछ किताबों पर रिप्ले बीन के हस्ताक्षर थे। शायद पिता के मरने के बाद ये किताबें रिप्ले बीन ने खरीदी थीं।
काफी देर तक उलटने-पुलटने के बाद भी मुझे किसी किताब पर रिप्ले बीन के जीवन से संबधित कोई कागज नहीं मिला। उनके फोटो की तो उम्मीद ही निरर्थक थी। इस बीच दुकानदार कई बार आकर ताक-झाँक कर गया था। मैंने उसे भरमाने के लिए कुछ किताबें एक किनारे एक के ऊपर एक रख दी थीं। वह उस ढेर को देखकर संतुष्ट हो रहा था पर समय शायद उसके पास भी अधिक नहीं था। उसने कहा भी कि फिर कभी और आ जाएँगे, लेकिन मैं हर बार थोड़ी और मुहलत का आग्रह करता और वह मान जाता। मैं निराश होकर अपनी तलाश मुल्तवी करने ही वाला था कि मेरे हाथ गत्ते का एक टुकड़ा लगा। लगता था किसी ने रिप्ले बीन को कोई सामान पार्सल बना कर भेजा था और उसी पार्सल का एक हिस्सा यह गत्ते का टुकड़ा था। बिना किसी विशेष प्रयास के मुझे गत्ते पर लिखी वह इबारत दिख गयी जिसने मुझे झकझोर कर रख दिया। थोडी-सी मेहनत के बाद कोई भी गत्ते पर लिखे उन दोनों पतों को पढ़ सकता था जो किसी सुघड़ हाथ ने निब को काली स्याही में डुबोकर लिखे थे और न जाने कितने वक्तों की धूल और पानी के थपेड़ों को झेलने के बावजूद जिन्हें अभी पढ़ा जा सकता था। पाने वाले के रूप में रिप्ले बीन का पता था। इसका मतलब था कि जब यह पार्सल उन्हें मिला था तब वे किराये के मकान में आ गयी थीं। डाकखाने की मुहर धुँधला गयी थी और पूरी कोशिश के बावजूद मैं उस पर छपी तारीख नहीं पढ़ पाया। भेजने वाला न्यूजीलैण्ड में रहता था। उसका नाम भी बहुत साफ नहीं था पर मुझे लगा कि थोड़े प्रयास से उसे भी पढ़ा जा सकता था। सबसे जरूरी था कि गत्ते को लेकर वहाँ से खिसक लिया जाये। मैंने सावधानी से गत्ते के पते वाले हिस्सों को फाड़ा और अपनी जेब में ठूँस लिया। इसके बाद छाँट कर रखी गयी किताबों में से एक किताब उठायी और बाहर निकल आया।
घर के बाहर निकलते-निकलते दुकानदार मुझसे टकरा गया। शायद उसका धैर्य चुक गया था और इस बार वह मुझे निकाल देने के इरादे से ही आ रहा था। मुझे निकलते देखकर वह ठिठका और मेरे हाथ में सिर्फ एक किताब देखकर उसका चेहरा लटक गया।
"आपके पास तो पूरा खजाना है। मैं फिर आऊँगा। आज तो बस यही एक... ।"
उसने मुझे जो कीमत बतायी उसे चुकाकर मैं सीधे अपने होटल की तरफ लपका। सूरज बादलों के पीछे छुप गया। कभी भी बारिश हो सकती थी। वैसे भी ठण्ड और चेहरे से टकराते हुए बादलों की वजह से मैं तेज कदमों से चल रहा था। रिप्ले बीन से मुलाकात की संभावना से मैं इस कदर उत्तेजित था कि लगभग दौड़ते हुए मैंने होटल का रास्ता तय किया।
होटल मैं लगभग भीगते हुए पहुँचा था। रास्ते में बारिश कई जगह थमी और शुरू हुई। मुझे खुद के भीगने से ज्यादा उस गत्ते के टुकड़े की चिंता थी जो मेरे पैंट की जेब में था और मैं लगातार अपने हाथ की मोटी किताब जेब पर रखकर उसे भीगने से बचाने की कोशिश कर रहा था। होटल पहुँचकर भी मैंने पहला काम गत्ते के टुकड़े को निकालकर एक सूखी जगह पर रखने का किया। अपना बदन सूखे तौलिये से रगड़कर मैंने उसका निरीक्षण करना आरम्भ किया। बारिश से तो गत्ते का यह टुकड़ा अछूता था, पर उस पर लिखा पता समय की मार से इतना धुँधला हो गया था कि लिखावट को पढ़ना बहुत आसान नहीं था।
मैंने बड़ी सावधानी से धुँधली पड़ी लिखाई पर एक पेंसिल हल्के-हल्के फेरी। थोड़ी देर में अक्षर आकृतियों की शक्ल में उभरे। मसूरी के मोहल्लों से अपरिचित होने के कारण मुझे उन्हें पढ़ने में दिक्कत हुई पर मैं जानता था कि नीचे काउण्टर पर बैठे रिसेप्शनिस्ट को दिखाने से पते का अन्दाज लगाया जा सकेगा।
मेरा सोचना सही निकला। दूसरे दिन सुबह जब दिन भर भूख न लगे इतना नाश्ता कर मैं अपने कमरे से निकला और पता लिखा गत्ता रिसेप्शनिस्ट के हाथ में थमाया तो थोड़ी देर में ही मुझे कामचलाऊ जानकारी मिल गयी। पता पढ़ पाना अकेले रिसेप्शनिस्ट के बस का नहीं था, उसकी मदद के लिए दो-तीन बेयरे वहाँ इकट्ठे हो गये
एक स्थानीय व्यक्ति भी, जो होटल में किसी से मिलने आया था, इस काम में लगा और अलग-अलग उच्चारणों से पुकारने के बाद एक नाम पर सहमत हो गये। फिर रिसेप्शनिस्ट ने एक अलग कागज पर वहाँ पहुँचने का नक्शा-सा बनाया और उसे लेकर मैं बाहर निकल आया।
उस पते को ढूँढ़ने में थोड़ा वक्त जरूर लग गया लेकिन मैं उस खस्ताहाल दुमंजिला इमारत तक पहुँचने में कामयाब हो ही गया जो मसूरी के बाहरी हिस्से में स्थित थी और जिसमें रिप्ले बीन ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष एक किरायेदार की हैसियत से बिताये थे। लगभग सौ वर्ष पुरानी इस इमारत का पलस्तर लगभग पूरा झड़ चुका था, रंग-रोगन वर्षों से नहीं हुआ लगता था, नतीजतन दीवारों पर लगातार नमी की वजह से जमी काई के बीच छोटे-बड़े रंगीन चकत्ते मौजूद थे जिन्हें गौर से देखने पर भी यह अन्दाज लगाना मुश्किल था कि वे मूलतः किस रंग के रहे होंगे।
इमारत जब बनी होगी तब भले ही यह क्षेत्र हरीतिमा से भरा, कोलाहल से दूर, मसूरी में शुरुआती दौर में बसने वाले एंग्लो-इंडियन बाशिन्दों का प्रिय रिहायशी इलाका रहा हो, पर अब तो अगल-बगल के सारे खुले हिस्से कंक्रीट की दुकानों और मकानों से इस कदर पट गये थे कि इस दुमंजिला इमारत को बिल्कुल करीब पहुँचकर ही पहचाना जा सकता था। काफी दूर से ही लोगों ने मेरे हाथ के कागज पर लिखे पते को पढ़कर इमारत की दिशा की तरफ इशारा करना शुरू कर दिया था पर मैं जब तक एकदम बगल में जाकर खड़ा नहीं हो गया मुझे उसका आभास नहीं हुआ।
करीब पहुँचने पर ही पता चला कि उस इमारत में तो कई किरायेदार रहते हैं और रिप्ले बीन आस-पास के दुकानदारों के लिए कोई अपरिचित नाम नहीं था। कुछ वर्षों पूर्व ही उनका निधन हुआ था और नजदीकी दुकानदारों के पास उनके और उनसे उम्र में थोड़े ही छोटे नौकर को लेकर तमाम किस्से थे। जो कुछ मुझे सुनने को मिला उसके अनुसार मैडम - रिप्ले बीन को वे इसी नाम से पुकारते थे - मरने के लगभग पन्द्रह वर्ष पहले इस इमारत की ऊपरी मंजिल के एक छोटे-से हिस्से में रहने आयी थीं। उन्होंने सुना था कि वे पहले लैण्डोर के पास किसी बड़ी आलीशान कोठी में रहती थीं। जाने क्यों सब बेच-बाच कर यहाँ चली आयीं। साथ में मानसिक रूप से अविकसित एक भाई और एक कुबड़ी बहन थी। एक बूढ़ा नौकर था जिसके खुद के अनुसार वह मैडम के पिता के जमाने से था और अब इनके पास से सीधे कब्रिस्तान ही जाएगा। भाई, बहन, जो बुढ़िया से छोटे थे, इस मकान में आने के बाद कुछ दिनों में गुजर गये। यहाँ इस मकान में ज्यादा समय मैडम और नौकर ही रहे। उनके पास एक कुत्ता भी था जो उनके मरने के कुछ पहले गुजर गया।
वे ज्यादातर घर में ही रहती थीं और शायद ही कभी भूले-भटके उससे मिलने कोई आता हो। नौकर भी जरूरी सौदा-सुलुफ के लिए ही निकलता था और अगर कभी किसी दुकान पर देर तक गप्प लड़ाने लगता तब ऊपरी मंजिल की खिड़की से बाहर झाँकता मैडम का चेहरा दिखाई देता जो अजीब कर्कश आवाज में नौकर को तब तक बुलाता रहता जब तक सकपकाया हुआ वह अन्दर न भाग आता।
दुकानदार ने मुझे किराये पर रहने का ठिकाना तलाशने वाला समझा था... यह मुझे थोड़ी ही देर में पता चल गया। दरअसल रिप्ले बीन वाला हिस्सा अभी तक खाली था। उनके मरने के बाद से ही खाली पड़ा था। ऐसा नहीं था कि किरायेदार आये नहीं, पर कुछ बात थी कि किरायेदार आते और आस-पास की दुकानों पर दरयाफ्त करके ही लौट जाते। मकान मालिक तक जाने की नौबत ही नहीं आ पायी। सिर्फ एक किरायेदार सीधे मकान मालिक तक पहुँच पाया था और मकान मालिक ने पहले उससे पेशगी किराया वसूला फिर अपने नौकर को चाभी लेकर उसे कब्जा देने के लिए भेजा। नौकर ने उसे ताला खोलकर पूरा हिस्सा दिखाया और चाभी सौंपकर चला गया। इतने कम किराये में अपनी जरूरत से बड़ी जगह पाकर खुश किरायेदार वापस ताला लगाकर नीचे उतरा। उसे थोड़ी दूर से अपना सामान लेकर लौटना था। बाहर निकलकर पहली ही दुकान पर वह सिगरेट सुलगाने के लिए रुका। दुकानदार से जो थोड़ी-बहुत बातें हुईं उनमें दो आस-पास के लोगों को अब तक याद हैं -- एक तो उसकी सिगरेट उसकी उँगलियों में सुलगती हुई राख हो गयी थी और दूसरे, वह वहाँ से जो गया तो फिर सामान लेकर वापस नहीं लौटा।
उस किरायेदार के भाग जाने का जो कारण था वह अगर बाहर नौकरी न कर रहा होता तो मेरे मसूरी में बस जाने का सबसे बड़ा सबब बन जाता। किरायेदार इसलिए भाग गया कि उसे दुकानदार ने बता दिया था कि ऊपर वाले हिस्से में रिप्ले बीन मैडम का भूत रहता है।
मैं जब एक दुकान पर बैठकर बात कर रहा था तो आस-पास के बहुत-से दुकानदार, उनके ग्राहक और रास्ता चलने वाले मेरे इर्द-गिर्द इकट्ठे हो गये। सबके पास अपने अनुभव थे। ज्यादातर ने ऊपर वाले हिस्से में आधी रात के बाद अचानक बल्ब को जलता-बुझता देखा था। कुछ ने तो ऊपर वाली खिड़की से मैडम को झाँकते और अपने नौकर को फटकारते भी सुना था। कई शर्त लगाने के लिए तैयार थे कि मैडम अकेली नहीं, बल्कि उनका नौकर और कुत्ता भी वहाँ आता है। लोगों के पास अलग-अलग अनुभव थे और अपनी उत्तेजित आवाजों में एक-दूसरे को काटते हुए वे मुझे सुनाना चाहते थे। वहाँ मौजूद लोगों को आश्चर्य हो रहा था कि सब कुछ सुनते हुए भी मैं मुस्करा रहा हूँ और जब तीसरी बार मैंने मकान मालिक का पता पूछा तो बगल के एक दुकानदार ने अपने यहाँ काम करने वाले एक छोकरे को मकान मालिक का घर दिखाने के लिए भेज दिया। ज्यादा दूर नहीं जाना पड़ा। हम मुश्किल से दो सौ गज चले होंगे कि छोकरा ठिठक कर खड़ा हो गया। सामने से एक वृद्ध सज्जन आ रहे थे। उनके एक हाथ में छाता और दूसरे में एक बड़ा-सा झोला था। शायद खरीदारी के लिए निकले थे। छोकरे ने जोर- जोर से हाथ हिलाकर उनका ध्यान आकर्षित किया। वे अपनी जगह पर खड़े हो गये। हम दोनों सड़क पार करते हुए उन तक पहुँचे। जैसे ही उन्हें समझ आया कि मैं उनका किरायेदार बनना चाहता हूँ, उन्होंने अचकचा कर पहले मुझे और फिर छोकरे को देखा। "इन्हें मैडम से डर नहीं लगता।" छोकरे ने कहा तो मैंने सर हिलाया।
"अरे, भूत-वूत कुछ नहीं है। लुच्चों ने सारी अफवाहें फैला रखी हैं ताकि कोई वहाँ टिके नहीं। खुद ये लफंगे वहीं बैठ जुआ खेलते हैं तब कोई भूत नहीं आता। सब मेरे दुश्मन हैं।" बूढ़ा देर तक बडबड़ाता रहा - "और वह बुढ़िया तो जीते जी भूत से कुछ कम थी क्या? बाप रे बाप, कितनी कंजूस थी। उससे किराया वसूलना कितना मुश्किल था। पुराना मकान है, टूट-फूट लगी रहती है, यही कहकर हर साल आधा किराया तो मरम्मत में ही लगवा देती थी। उसे मरने के बाद भूत बनने की क्या जरूरत है?"
वह देर तक रिप्ले बीन को कोसता रहा। पर बीच-बीच में उसकी खुशी भी छलकती रही। किरायेदार और ऐसा किरायेदार जो भूत के साथ रहने को तैयार हो, मिलने की उत्तेजना उसकी आवाज में छलक रही थी। वह मुझे लेकर एक चाय की दुकान पर बैठ गया और छोकरे को अपने घर जाकर चाभी लाने के लिए कह दिया। जब तक छोकरा उसके घर से चाभी लेकर लौटा, हम दो-दो कप चाय पी चुके थे और मुझे रिप्ले बीन के बारे में काफी कुछ पता चल चुका था।
मकान मालिक मेरे साथ मुख्य द्वार तक तो गया लेकिन ऊपर नहीं गया। उसने मुझे नीचे ही चाभियाँ थमायीं और विदा ली। उसकी जल्दबाजी को मैं समझ रहा था लेकिन मुझे कोई दिक्कत भी नहीं थी। मुख्य द्वार को हल्का-सा धक्का देता हुआ मैं अन्दर चला गया।
पुराने, जर्जर, दुमंजिला मकान के निचले हिस्से में दो किरायेदार थे। बीच से ऊपर जाने की सीढ़ियाँ इस तरह थीं कि बिना किसी को परेशान किये स्वतंत्र रूप से ऊपरी हिस्से तक जाया जा सकता था। नीचे के किरायेदारों के कमरे अन्दर से बन्द थे, पर खट-पट से उनके अन्दर चल रहे जीवन का अन्दाज लगाया सकता था। मैं उनमें से किसी को बताये बिना सीढ़ियों से ऊपर चला गया। ऊपर एक बालकनी थी जहाँ से सामने हिमालय की श्रृंखलाएँ दिखतीं थीं। यहीं मकान मालिक के शब्दों में, "चुड़ैल बुढ़िया खुले मौसम में दिन भर राकिंग चेयर पर बैठी-बैठी मुझे कोसती रहती थी।"
मौसम खुला था लेकिन बालकनी खाली थी। बावजूद इसके कि "बाजार के सारे लफंगे ऊपर जाकर जुआ खेलते हैं," बालकनी में धूल की एक मोटी पर्त जमी थी। बालकनी में इस हिस्से के अकेले बड़े कमरे का दरवाजा खुलता था, उस पर मोटा-सा ताला लटका था। मुझे तीन चाभियों वाला एक गुच्छा मिला था। मैंने ताले को देखकर अन्दाज से जो चाभी लगायी उसी से वह खुल गया। अन्दर घुसा तो सीलन-जन्य बदबू का ऐसा थपेड़ा मुँह पर लगा कि उल्टे पैर वापस लौटना पड़ा। कमरे को खुला छोड़कर मैं कुछ देर तक बालकनी में ही खड़ा रहा और नीचे सड़क एवं बाजार की चहल-पहल देखता रहा। नीचे लोगों की उत्सुकता अभी तक मुझमें बनी हुई थी, वे सड़क पर चलते-चलते रुक कर या दुकानों से बाहर निकल-निकल कर मुझे देख रहे थे। बालकनी पर बिना किसी भय, स्थिर खड़ा मैं उन्हें मुँह चिढ़ाता-सा लग रहा हूँगा, ऐसा मुझे लगा।
पर्याप्त ताजा हवा कमरे के अन्दर जा चुकी थी कि मैं अन्दर घुसा। अभी भी सीलन थी पर साँस ली जा सकती थी। कमरे में अँधेरा था। बाहर की रोशनी से इतना तो हुआ कि थोड़ी देर दम साधे खडे रहने पर स्विच बोर्ड दिखाई दे गया। मैंने एक-एक करके सारे स्विच ऑन किए पर कोई बल्ब नहीं जला। यह तो मुझे बाद में पता चला कि पिछले कई वर्षों से इस कमरे में बिजली नहीं थी। पता नहीं बाहर वालों को कैसे बीच-बीच में रातों को यहाँ रोशनी दिखती थी।
जितना भी उजाला बाहर से आ रहा था उससे मैंने अन्दर के कमरे का मुआयना करना आरम्भ किया। अब तक मेरी आँखें भी कुछ अभ्यस्त हो चलीं थीं। कमरा पुराने कबाड़ से भरा था। एक पुराना पलंग, जो काफी बड़ा था और जिसने लगभग आधा कमरा घेर रखा था, अपनी तीन टाँगों पर दीवार के किनारे पड़ा था, उसकी चौथी टाँग ईंटो पर टिकी हुई रही होगी क्योंकि इस टूटी टाँग के पास कई ईंटें गिरी पड़ी थीं और पलंग उधर की तरफ लटकी हुई थी। पलंग पर लगभग चिथड़ा हो गयी एक बदरंग-सी चादर पड़ी थी। कमरे की दो दीवारें आलमारियों से भरी हुई थीं जो कभी रिप्ले बीन की किताबें रखने के काम आती रही होंगी। आलमारियों के पल्ले या तो गायब थे या लटक गये थे। खाली आलमारियों को देख कर अन्दाज लगाया जा सकता था कि उनकी किताबें मकान मालिक ने रिप्ले बीन के दूसरे सामान के साथ बेच दिया था। इस कमरे से सटे दो कमरे और थे। मकान मालिक ने जो विवरण मुझे दिया था उससे इनके दरवाजे खोले बिना ही मैं समझ गया कि एक गुसलखाना था और दूसरा छोटा कमरा जो रिप्ले बीन के जमाने में किचन के तौर पर इस्तेमाल होता था। इसलिए उन्हें खोलने की जगह मैंने अपने मतलब की चीज कमरे में ही तलाशनी शुरू की।
मैं अपने मकसद में थोड़ी मेहनत के बाद कामयाब भी हो गया। नीम अँधेरे कमरे की पलस्तर उखड़ी दीवारों पर टँगी टेढ़ी-मेढ़ी हो गयी तस्वीरों पर ढूँढ़ती मेरी निगाहें जिसे तलाश रही थीं उस तक पहुँच गयीं। दीवारों पर कई लैण्डस्केप और पेंटिंग लगी थीं, धुँधले होने के बाद भी जिनके रंग अभी इतने निष्प्राण नहीं हुए थे कि आपकी दृष्टि को थोड़ी देर बाँधे न रख सकें। कुछ पारिवारिक फोटोग्राफ थे पर उन्हें देखकर केवल यह अन्दाजा लगाया जा सकता था कि धब्बों में परिवर्तित आकृतियाँ रिप्ले बीन, उनकी माँ, पिता या छोटे भाई-बहन की हो सकतीं थीं। पर उस भूरी दीवार पर एक फोटोग्राफ ऐसा भी था जिस पर एकदम से मेरी निगाहें ठहर गयीं। यद्यपि कमरे में रोशनी इतनी कम हो गयी थी कि कुछ भी साफ-साफ देख पाना मुमकिन नहीं था, पर यह फोटोग्राफ ऐसा था कि जालों और धूल से अँटे होने के बाद भी एक बार मेरी निगाह उस पर पड़ी तो अटक कर रह गयी। मैं कमरे में मौजूद हिलती टाँगों वाले एकमात्र मेज को घसीट कर दीवार तक ले आया और फिर डगमग काँपते उस मेज पर चढ़कर थोड़ी मुश्किल से ही सही, पर तस्वीर उतार ली। उतार क्या ली, मेरे थोड़े-बहुत खींचने से वह कील सहित उखड़ कर मेरे हाथ में आ गयी और मैं गिरते-गिरते बचा।
अन्दर कमरे में अब इतनी रोशनी नहीं बची थी कि फ्रेम में जड़ी तस्वीर साफ दिखाई दे इसलिए मैं उसे लेकर बाहर निकल आया। रूमाल से थोड़ा रगड़ने से साफ हो गया कि यह कोई फोटोग्राफ था जिसे एनलार्ज किया गया था। नीचे फोटोग्राफर का नाम था और एक तारीख लिखी थी। मैंने माचिस की तीली जलायी और जब तक लौ मेरी त्वचा को जलाने नहीं लगी तब तक फोटोग्राफर का नाम पढ़ने की कोशिश की। दूसरे प्रयास में हाथ से लिखे इस नाम को पढ़ने में मैं सफल हो गया। दूसरी तीली बुझने के पहले मैं उत्तेजना से भर गया। फोटोग्राफर का नाम रस्ट था जिसने नीचे अपने हस्ताक्षर किये थे। रस्ट का नाम पढ़ते हुए मुझे अन्दर से बेचैनी महसूस हुई। यह तो वही फोटोग्राफर था जिसे एलन को उत्तेजित फौजियों की भीड़ से बचाने के लिए कोतवाल ने एलन की कमीज पहनाकर और उसकी पीठ भीड़ की तरफ करके बैठाया था।
रस्ट रिप्ले बीन को कैसे जानता था? मुझे सब कुछ बड़ा रहस्यमय लगा। फोटोग्राफ पर अपने हस्ताक्षर के नीचे रस्ट ने जो तारीख डाली थी वह सोलह वर्ष पुरानी थी। यानी मरने के कुछ ही दिन पहले खींची गयी थी यह फोटो!
रोशनी खत्म हो गयी थी पर अँधेरे में बालकनी में बैठे मैं माचिस की तीलियाँ तब तक फूँकता रहा जब तक पूरी माचिस खाली नहीं हो गयी। मैं एक तीली जलाता और तस्वीर पर अलग-अलग कोण से रोशनी फेंकता रहा। जब तीली जलते-जलते उँगलियाँ सुलगने लगतीं तब मैं उसी से दूसरी तीली जला लेता। यह एक उम्रदराज बूढ़ी औरत का चित्र था जो एक कुशल फोटोग्राफर के कैमरे ने खींचा था और जिससे उसके चेहरे की एक-एक रेखा इतनी सजीव उभरी थी कि आप आँख मूँदकर उसे साक्षात अनुभव कर सकते थे। मैंने आखिरी तीली बुझने के बाद अपनी आँख बन्द की।
"अरे कमबख्त बाहर कब तक बैठा रहेगा? ठण्ड लग जाएगी।" मैंने अचकचा कर आँखें खोलीं। अन्दर कमरे में लाइट जल रही थी। रिप्ले बीन आ गयीं क्या?
मैं झपटते हुए अन्दर गया। सचमुच रिप्ले बीन का भूत उनकी पसन्दीदा जगह राकिंग चेयर पर बैठकर झूल रहा था। रोशनी हो जाने से कमरा साफ दिखाई दे रहा था। सारी दीवारें जालों से अँटी पड़ी थीं। आलमारियों, तस्वीरों और टूटे-फूटे फर्नीचर पर जाले फैले हुए थे और हर जगह धूल की मोटी पर्तें जमी हुई थीं।
"मैं कमरे की सफाई कर दूँ, मैडम?" मैंने भूत की खुशामद करते हुए कहा।
"रहने दे... रहने दे... एक बार भूत बन जाने के बाद इन सब चीजों का कोई मतलब नहीं रह जाता।" उसने कुछ दार्शनिक अन्दाज से कहा, "अपने बैठने के लिए कोई जगह साफ कर ले। जिन्दा आदमी के लिए हजार लफड़े होते हैं।" भूत हँसा तो मैंने भी उसे खुश करने के लिए दाँत निपोर दिये। तीन पाये के पलंग पर बैठने के इरादे से मैंने जैसे ही अपने रूमाल से उसे झाड़ने की कोशिश की, भूत चीखा - "अरे नालायक, वहाँ नहीं। मेरे पलंग पर कोई नहीं बैठता। इसी बात पर नौशाद ने मुझसे कितनी डाँट खायी थी। उधर उस स्टूल को खींच ले।" मुझे बाद में पता चला कि नौशाद उसके नौकर का नाम था जो रिप्ले बीन से दो-चार बरस ही छोटा था और अंतिम बीसियों साल उनकी खिदमत में रहा था। मैंने स्टूल खींचा, झाड़ा-पोंछा और उस पर बैठ गया।
"मुझे पता है कि तुम मुझे क्यों ढूँढ़ रहे थे।"
मैं चुप रहा। भूत को क्या नहीं पता होता?
"आदमी था बहुत बदमाश। भला बताओ, अपने दोस्त को कोई कैसे मार सकता है? तुमने जेम्स की कब्र देखी है? उस पर क्या लिखा है?"
मैं उसके इस प्रश्न पर भी खामोश रहा। मैं अभी तक जेम्स की कब्र देखने नहीं जा पाया था। मुझे खुद पर गुस्सा आया कि अभी तक यह बात मेरे दिमाग में आयी क्यों नहीं ।
"कैमल बैक रोड से गन हिल की तरफ जाओ तो ढलानों पर तुम्हें यूरोपियन सिमेट्री मिलेगी। कमबख्त पहाड़ी इसे गोरा कब्रिस्तान कहने लगे हैं। पहले तो सिर्फ यूरोपियन दफनाये जाते थे वहाँ, आज की तरह नहीं कि कोई भी ऐरा-गैरा ईसाई दफन होने के लिए पहुँच जाये वहाँ।"
इस भूत का दर्द छलक आया कि उसे न जाने कितने कालों के बीच दफन किया गया है।
"वहीं तुम्हें जेम्स की कब्र मिलेगी जिसकी कब्र पर दर्ज है - मर्डर्ड बाई द हैंड दैट ही बीफ्रेंडेड! अँग्रेजी समझते हो?"
मैंने हाँ में सर हिलाया। दोस्त हाथों से कत्ल हुआ।
"क्या एलन सचमुच कातिल था?"
शायद मेरा प्रश्न कुछ जल्दी पूछ लिया गया था - भूत उसके लिए तैयार नहीं था। सवाल सुनते ही वह चुप हो गया। मैं थोड़ी देर तक चुपचाप बैठा उसके जवाब का इंतजार करता रहा। उसने मुँह लटका लिया था और बोलने के लिए जरा भी उत्सुक नजर नहीं आ रहा था। काफी देर तक खामोशी छायी रही फिर हौले से उसने कहा - "पता नहीं हत्या उसने की थी या नहीं, पर सारा मसूरी तो यही मानता था। दूसरे दिन जब देहरादून से पुलिस वाले उसे लेकर वापस जेम्स की दुकान पर लाये तो कितनी भीड़ थी आस-पास! अगर पुलिस ने होशियारी न दिखायी होती तो लोग उसे पीट-पीट कर मार डालते। तुमने उन दिनों के मसूरी के अखबार पढ़े होते! कितने नाराज थे मसूरी के लोग! यह भी कोई बात हुई कि चन्द सिक्कों के लिए अपने दोस्त को कत्ल कर दे कोई!"
"तुम्हें क्या लगता है, जेम्स की हत्या एलन ने ही की थी?"
इस बार का दुस्साहस मुझे महँगा पड़ा। भूत ने गन्दा-सा मुँह बना कर मुझे देखा और फिर जो खामोश हुआ तो फिर उसकी खामोशी नहीं टूटी तो अंत तक नहीं टूटी।
मैं कब तक इंतजार करता! रात घिर आयी थी और ठण्ड भी बढ़ने लगी थी। मुझे होटल जाकर सामान लाना था। मैंने उसे खामोश राकिंग चेयर पर झूलते हुए छोड़ा, बाहर आकर दरवाजे में ताला लगाया और नीचे उतर आया। गेट के बाहर निकलकर ऊपर देखा तो कमरे की लाइट ऑफ थी। शायद मेरे जाते ही भूत भी वहाँ से चला गया था।
होटल से दूसरे दिन सामान लेकर मैं उस मकान में आ गया। जब मैं कुली की पीठ पर सामान लदवाये वहाँ पहुँचा तब एक अजूबे की तरह लोगों ने मुझे घेर लिया। कल रात मेरे जाने के बाद आस-पास के लोगों ने मान लिया था कि मैं भाग गया हूँ, इसलिए स्वाभाविक था कि मेरे लौट आने पर उन्हें उत्सुकता हुई। वे मुझसे तमाम चीजें पूछना चाहते थे लेकिन मेरी दिलचस्पी उनसे बात करने में एकदम नहीं थी। कुली स्थानीय था इसलिए इस भुतहे मकान के बारे में जानता था। उसने भी सामान गेट के बाहर पटका और अपनी मजूरी लेकर चलता बना।
सामान बहुत था भी नहीं - एक अटैची और एक बिस्तरबन्द। मैंने खुद ही ढो-ढोकर उन्हें ऊपर पहुँचा दिया।
नीचे वाले किरायेदारों के दरवाजे-खिड़कियाँ कल की तरह आज भी बन्द थे। शायद उन्हें डर था कि खुले रास्तों से ऊपर का भूत उनके घर में प्रवेश कर सकता था इसलिए वे घर हर समय बन्द रखते थे। कमरे का ताला खोलकर मैं अन्दर घुसा तो कल के मुकाबले सीलन की गन्ध कम थी। मैंने खिड़कियाँ खोल दीं। मेज पर अपनी अटैची रखी और एक कपड़ा लेकर जितना कुछ झाड़-पोंछ सकता था, किया। पलंग झाड़कर उस पर अपना बिस्तर बिछाने का इरादा तो मैंने शुरू में ही छोड़ दिया था। रिप्ले बीन की पलंग पर सोते देख कहीं भूत और नाराज न हो जाए। मैंने जमीन पर ही अपना बिस्तर बिछा दिया। होटल से यहाँ तक आने की थकान ने मजबूर किया कि थोड़ी देर पीठ सीधी कर लूँ पर जब लेटा तो पता नहीं कब गहरी नींद आ गयी। उठा तो चारों तरफ अँधेरा था। खुली खिड़कियों और दरवाजे से ठण्ड अन्दर आ रही थी। आँख खुलते ही पहली चीज जो याद आयी वह थी कमरे में बिजली का गुल होना।
दिन भर सोते रह जाने से मैं किसी मिस्त्री को बुला कर चेक नहीं करा सका कि बिजली क्यों नहीं आ रही। मकान मालिक के अनुसार तो घर में एक मीटर था और बिजली का बिल बाकी नहीं था। कोई न कोई अन्दरूनी फाल्ट थी। पर क्या पता बुलाने पर कोई मिस्त्री ऊपर आता भी! मैं काफी देर तक यह सोचकर पड़ा रहा कि भूत आ जाए और लाइट ऑन कर दे पर वह नहीं आया। लगता है नाराज हो गया था।
जोर की भूख लगी थी, देर तक लेटे रहना मुमकिन नहीं था। मैं उठा और खाने की तलाश में बाहर निकल आया। इस बार मैंने दरवाजा बन्द करने की जरूरत भी नहीं समझी। जिस घर में भूत रहते हों वहाँ चोर-चाईं क्या आयेंगे ?
मैं अपने नये ठिकाने के आस-पास की किसी दुकान पर नहीं रुकना चाहता था क्योंकि वहाँ लोगों से घिर जाने और तमाशा बन जाने के इमकानात थे, इसलिए बिना किसी से नजरें मिलाये एक अपरिचित दिशा में तेज कदमों से बढ़ चला। थोड़ा ही आगे चलने पर मुझे समझ आ गया कि मैं कैमल बैक रोड पर आ गया हूँ। कैमल बैक रोड पहले भी मसूरी आने पर मेरा पसन्दीदा सड़क रहती थी। माल रोड की भीड़-भाड़ से दूर यह आम तौर से रोमांटिक जोड़ों या भीड़ से दूर रहना चाहने वाले सैलानियों के सैर के लिए प्रिय जगह थी। मुझे गनहिल के इर्द-गिर्द रेंगती यह पहाड़ी इसलिए भी प्रिय थी कि इसकी ढलान से लिपटी एक बड़ी सिमेट्री थी जिसमें फैली सफेद संगमरमर की कब्रें बादलों से रहित चाँद रातों में एक अजीब-सा रहस्य लोक निर्मित करती थीं और कैमल बैक रोड के कई घुमावदार मोड़ों से अलग-अलग कोण पर उन्हें देखना मुझे रोमांचित कर देता था। सिमेट्री मुझे इसलिए भी आकर्षित करती थी कि उसमें मेरे सबसे प्रिय मित्र यानी भूत अपने अंतिम रूपों में लेटे हुए थे। आज भी यही हुआ। मैंने कैमल बैक रोड की शुरुआत में ही एक टी शॉप पर पाव रोटी खायी और चाय पी। पेट में कुछ जाने पर मैं चैतन्य हुआ और कैमल बैक रोड पर मटरगश्ती करने निकल पड़ा।
कैमल बैक रोड के उस मोड़ पर पहुँचते ही जहाँ से ढलानों पर स्थित सिमेट्री की पहली झलक मिली, मेरा दिल धड़कने लगा। एक खास बिन्दु पर जहाँ से सिमेट्री का विहंगम दृश्य दिखता था और लोहे की एक खाली बेंच जैसे मेरा ही इंतजार कर रही थी, मैं बैठ गया। सामने की कब्रों में कितने परिचित लेटे थे - कैप्टन यंग, रिप्ले बीन, जेम्स, मिसेज सैमुअल, रस्ट और न जाने कौन-कौन। इन सबने कितना साथ दिया है मेरा, कितनी मित्रता निभायी है। मेरा मन कृतज्ञता से भीग गया।
मैं एकटक संगमरमर के उस रहस्य लोक में अपने मित्रों के आशियाने तलाशता रहा। कल के अनुभव से मन कुछ व्यथित-सा था। मैंने कुछ ऐसी गलती की थी जिसे मैं समझ नहीं पा रहा था पर जिससे भूत इतना नाराज हो गया था कि आज दिन भर इंतजार करने के बाद भी नहीं आया। मेरी कहानी बीच में ही छूट गयी थी।
मुझे अपने मित्र कैप्टन यंग की याद बुरी तरह सता रही थी। कहाँ होगा? जरूर 3 गोरखा पलटन की लाइंस के पास किसी पीपल या बड़ के पेड़ से लटका मटरगश्ती कर रहा होगा। मलिंगर हाउस में अगली पूर्णिमा को आयेगा। उसने कहा था, वह एक ऐसे भूत को जानता है जिसे इस हत्याकाण्ड के बारे में सब कुछ पता है और मुझसे उसे मिलवाने का वायदा भी किया था। उस भूत ने कैप्टन यंग को तो कुछ नहीं बताया पर उसे उम्मीद थी कि मैं उससे सच्चाई उगलवा लूँगा। मनुष्य की क्षमता पर भूतों को भी यकीन होता है। मेरा अब तक का अनुभव यही बताता था कि भूत वायदा निभाते हैं और मित्रों की मदद करते हैं। कैप्टन भी करेगा, पर पन्द्रह दिन इंतजार करना तो बड़ा मुश्किल है। मेरा दुष्ट संपादक एक स्टोरी के लिए मुझे एक महीने मालिकों के खर्चे पर मसूरी घूमते पायेगा तो जल-भुन कर राख हो जाएगा। क्या किया जा सकता था?
बेंच पर असहाय बैठा मैं कब्रिस्तान में फैली असंख्य कब्रों को उदास निहारता रहा।
अचानक अपने कन्धे पर किसी के हल्के स्पर्श का आभास हुआ। मैंने चौंक कर देखा तो बेंच के दूसरे कोने पर मुस्कराता हुआ कैप्टन यंग दिखायी पड़ा। मुसीबत में काम आने वाले इस दोस्त पर इतना प्यार उमड़ा कि जी हुआ उसे चूम लूँ। मुझे पता था कि भूत इन सब इंसानी चोंचलों से दूर रहते हैं, अगर मैंने ऐसा कुछ किया तो हो सकता है कि शरमा कर भूत भाग ही न जाए। इसलिए मैं सिर्फ कृतज्ञ नजरों से उसे भिगोता रहा।
"जय गोरख हुजूर! कैसे आ गये?"
मेरे आश्चर्य पर भूत खिलखिलाया - "तुम्हें उदास देखा तो चला आया। मेरी पलटन तो दूर सियाचिन में है। कमबख्त हाड़ कँपाने वाली ठण्ड है। मैं तो ऊनी वर्दियों के स्टोर में छिपा बैठा था। तुम मुँह लटकाये बैठे थे, इसलिए इधर आ गया।"
मुझे उदास देख सकता है तो मेरी उदासी का सबब भी जानता ही होगा, यह सोचकर मैं चुप रहा। पर लगा वह मेरे मुँह से ही सुनना चाहता है। इसलिए मुझे विस्तार से बताना पड़ा। "अच्छा, तो तुम रिप्ले बीन से मिल चुके। उसने शरारत से आँख मारी, "चलो मेरा काम आसान हो गया। उसी से तो मिलाना चाहता था मैं तुम्हें।"
"अजीब बात है। रिप्ले बीन से मैंने जब-जब यह सवाल किया कि एलन हत्यारा है या नहीं, वह चुप हो जाती है। मुझे कोई जवाब नहीं देती।"
"हाँ, मुश्किल तो है।"
"फिर कैसे बात बनेगी?" मैंने आजिजी से पूछा।
"तुम्हें कोशिश करनी होगी। अब तो तुम्हें मेरे लिए भी कोशिश करनी होगी। तुम नहीं जानते कि मैं कितना व्याकुल हूँ यह जानने के लिए कि एलन हत्यारा था या नहीं। तुम्हीं जान सकते हो। तुम इंसान हो और मुझे पता है कि इंसानों के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं है।"
सुनकर मुझे हँसी आ गयी। हम इंसान मानते हैं कि भूतों के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं है जबकि भूत हमारे बारे में यही सोचते हैं।
मैंने अपनी हँसी रोकते हुए अपनी अगली समस्या उसके सामने रखी - "पर वह तो नाराज होकर चला गया। आज पूरा दिन मैंने इंतजार किया पर आया ही नहीं। पता नहीं अब आयेगा भी या नहीं?"
"आयेगा... जरूर आयेगा..., भूत इंसानों की तरह नहीं होते। वे कोई बात गाँठ में बाँध कर नहीं रख लेते। वे दिल के साफ होते हैं। अगर नाराज हुआ भी होगा तो अब तक गुस्सा उतर गया होगा। तुम घर चलो, मैं भी थोड़ी देर में पहुँचता हूँ। तुम्हारे बुलाने से नहीं आया तो मैं पकड़ कर ले आऊँगा।"
शाम की उदासी दूर हो गयी। मैंने झटपट अपने आशियाने की राह पकड़ी। रास्ते में मैंने खाना पैक करा लिया पर मोमबत्ती लेना भूल गया। घर के पास पहुँच कर याद आया तो न चाहते हुए बगल की दुकान पर रुकना पड़ा। जैसे ही मैंने मोमबत्ती माँगी, किसी और कार्य में व्यस्त दुकानदार ने मेरी तरफ देखा और चौंकते हुए कहा - "कल आपने पूरी रात अँधेरे में बितायी। आपको डर नहीं लगा?"
"कल तो पूरी रात मेरे कमरे में रोशनी रही। बल्ब जलता रहा।"
दुकानदार ने अचकचा कर मुझे देखा। मैंने उसे ज्यादा बोलने का मौका नहीं दिया तथा मोमबत्तियों का पैकट और पानी की दो बोतलें लेकर ऊपर चला गया।
मेरे दो दोस्त आने वाले थे। अन्दर से एक खास तरह की खुशी महसूस कर रहा था मैं। मैंने एक कोने में मोमबत्ती जलायी, पानी की बोतल खोल कर कमरे में ही हाथ धोया और जल्दी- जल्दी साथ लाया खाना खत्म किया।
कमरे में सिर्फ दो कुर्सियाँ थीं। राकिंग चेयर तो मैडम के लिए हो गयी, दूसरी कुर्सी पर बैठकर मैंने खाना खाया था, उसी को कैप्टन यंग के लिए छोड़ दूँगा। जिस स्टूल पर रखकर खाना खाया था उस पर मैं बैठ जाऊँगा। अपने घर में भी मेहमानों के लिए इतनी व्यवस्थित तैयारियाँ मैंने स्वयं नहीं की थीं। मेरी पत्नी देखती तो उसे विश्वास नहीं होता कि मैं भी इतने सलीके से ऐसा इंतजाम कर सकता हूँ!
स्टूल को राकिंग चेयर के पास जमाकर अभी मैं हटा ही था कि मुझे उस पर बैठा कैप्टन यंग दिखाई दे गया। लगता था कहीं बगल में खड़ा होकर इन्तजार ही कर रहा था और मौका मिलते ही स्टूल पर बैठ गया। कमरे में बल्ब जल गया था।
"अरे यार, तुम इतना कम खाते हो?" इसका मतलब वह मुझे खाते हुए देख रहा था।
मैंने झेंपते हुए कहा, "अरे नहीं कैप्टन साहब! आज तो कुछ ज्यादा ही खा लिया।"
"भाई जवान आदमी हो. इतने को ही ज्यादा कहोगे तो कैसे चलेगा। मेरी पलटन के लड़कों की खुराक देखना कभी... "
"आप भी हुजूर... फौजियों की तुलना पत्रकारों से करते हैं! हम तो कलम के सिपाही हैं... स्याही खाते हैं।" हम दोनों हँसे।
"अभी तक रिप्ले बीन नहीं आयीं?" उसने बातचीत का रुख दूसरी तरफ मोड़ा।
"पता नहीं आयेगी भी!" मेरे मन की शंका बाहर आ गयी।
"आयेगी कैसे नहीं?" वह खामोश हो गया। लगता था उसने मेरे प्रश्न को चुनौती की तरह लिया था। आँखें बन्द कर चुपचाप बैठ गया। मैं डरा कि कहीं मैंने अपनी मूर्खता से इस भूत को भी तो नाराज नहीं कर दिया था।
यह तो बाद में, जब मैडम रिप्ले बीन का भूत राकिंग चेयर पर आकर बैठ गया, मुझे पता चला कि मौन भी संवाद का माध्यम हो सकता है। खास तौर से भूतों के बीच तो मौन ही ऐसा अचूक माध्यम था जिसके द्वारा कैप्टन यंग का सन्देश, आग्रह, चिरौरी, नाराजगी, धमकी... और न जाने किन-किन भावनाओं से भरा हुआ रिप्ले बीन तक पहुँचा था।
मैडम रिप्ले बीन के भूत को देखकर इतना तो साफ लग रहा था कि वह नाराज था। नाराजगी उसके चेहरे पर भी थी और जिस तेजी से वह राकिंग चेयर पर झूल रहा था उससे भी स्पष्ट थी।
मैं भले डरा, पर कैप्टन यंग पर रिप्ले बीन की नाराजगी का कोई असर नहीं लग रहा था। वह चिढ़ाने जैसे भाव से मुस्कुरा रहा था जैसे कोई बड़ा किसी बच्चे के नाराज होने पर उसे छेड़ता है। कैप्टन यंग था भी तो उससे सत्तर-पचहत्तर साल बड़ा!
"अब गुस्सा थूक दो मैडम और इस बेचारे खोजी पत्रकार की कुछ मदद करो।"
"मदद क्या करूँ खाक, जिस मामले के बारे में पूछ रहा है उसके बारे में मुझे कुछ नहीं पता।"
"क्यों, तुम तो उन दिनों मसूरी में ही थीं! तुम्हारे बाप के साथ उस शानदार बँगले में मैं भी कई बार गया था।"
"थी जरूर, पर मुझे उतना ही मालूम है जो उन दिनों मसूरी के अखबारों में छपता था। मसूरी में हर कोई जानता था कि एलन हत्यारा है। कत्ल क्यों हुआ यह किसी को पता नहीं था। कम से कम मुझे तो नहीं ही पता है।"
"देखो रिप्ले, तुम्हारे सामने जो बैठा है वह एक इंसान है और ऊपर से खोजी पत्रकार भी। कितना डेडली काम्बिनेशन है। हम-तुम भूत हैं - हमें यह तो पता ही है कि इंसान क्या कुछ नहीं कर सकता? इस मामले में तो मेरी भी दिलचस्पी है। मैं भी जानना चाहता हूँ। इस पत्रकार से मिलने के बाद तो मुझे भी उम्मीद बँधी है कि शायद मैं जान सकूँ कि मेरी पलटन का सिपाही सचमुच कातिल था या उसे बेगुनाह लटका दिया गया।"
काफी देर मान-मनव्वल का दौर चला। रिप्ले बीन मना करती रही कि उसे नहीं पता कि कत्ल किसने किया था। उन्हें मसूरी के दूसरों लोगों की इस जानकारी पर सन्देह करने का कोई कारण नजर नहीं आता कि कातिल एलन ही था। वही था जो जेम्स के साथ आखिरी बार देखा गया था। उसके बाद जेम्स से मिलने कोई दूसरा आदमी वहाँ नहीं पहुँचा था।
पुलिस की सारी तफतीश उसी को दोषी पाती है। पूरी मसूरी में कोई ऐसा नहीं था जिससे जेम्स की दुश्मनी रही हो। फिर कौन मारेगा जेम्स को? एलन ने चन्द सिक्कों के लिए अपने दोस्त को मार डाला। बार-बार रिप्ले बीन मुँह बिचका कर उसे कोसती रही पर कैप्टन यंग भी किसी ऐसे सेना नायक की तरह अड़ा रहा जिसे एक टास्क मिला है और जो उसे किसी भी कीमत पर पूरा करना चाहता है। अंत में रिप्ले बीन को झुकना ही पड़ा। शर्त सिर्फ इतनी रखी उसने कि मैं ऊलजलूल सवाल नहीं पूछूँगा। वह जितना बतायेगी चुपचाप सुनूँगा। उसके बारे में जितना मैंने उसके मकान मालिक और आस-पड़ोस के दुकानदारों से सुना था उससे उसकी पूरी छवि एक चिड़चिड़ी और तुनकमिजाज बुढ़िया की बनती थी। वह जीवित मिलती तब भी मेरी क्या मजाल थी कि उससे ज्यादा सवाल-जवाब करता। अब तो खैर भूत बन जाने के बाद इसका सवाल ही नहीं उठता था।
इसके बाद रिले यात्रा शुरू हुई। कैप्टन यंग ने कथा का सूत्र रिप्ले बीन को थमाया और फुर्र से उड़ गया। मुझे अफसोस हुआ कि मैं उसे ढंग से धन्यवाद भी नहीं दे पाया।
"देखो, तुम मुझसे बहुत उम्मीद मत करना।"
जैसे ही रिप्ले बीन के भूत ने बोलना शुरू किया, मेरा चेहरा उतर गया। कैप्टन यंग के जाते ही मुझे निःशस्त्र पाकर अपने रंग में आ रही है बुढ़िया। पर उसकी अगली बात से कुछ ढाढ़स बँधा -
"सामने आलमारी में जो बंडल दिख रहा है उसमें कुछ खत हैं जो एलन ने लिखे थे। पिछले सौ सालों में किसी ने इन्हें नहीं पढ़ा था। इन्हें पढ़ लो, फिर आगे बात करते हैं।"
मैंने अचकचाकर देखा तो सिर्फ राकिंग चेयर हिल रही थी। उस पर से भूत गायब था। कमरे की रोशनी गुल हो गयी थी और अँधेरे में राकिंग चेयर की हिलती काया का आभास हो रहा था। मैंने तीली जलाकर पहले तो वह मोमबत्ती तलाशी जो भूतों के आने पर बुझ गयी थी और फिर उसे हाथ में लेकर सामने वाली आलमारी की तरफ लपका। ज्यादा ढ़ूँढ़ना नहीं पड़ा। आलमारी के ऊपरी खाने में ही पुराने और लगभग चिथड़ा हो चुके कपड़े के बस्ते में लिपटा खतों का एक बंडल पड़ा था। उसे उतार कर मैं कमरे के बाहर बालकनी में ले आया। कुछ रोशनी बाहर भी आ रही थी और कुछ मोमबत्ती की लौ से उपजी थी जिसमें मैंने सावधानी से बस्ते को खोला। उसका कपड़ा, जो पूरी तरह से पीला पड़ गया था, छूते ही फट-फट जा रहा था। अन्दर नीम अँधेरे में जो कुछ मैंने देखा उसे पढ़ने की व्यग्रता ने मुझे इतना भी नहीं रुकने दिया कि मैं कमरे में ताला लगा दूँ। मैं बंडल को लेकर सीधा अपने होटल की तरफ भागा। उम्मीद थी कि मुझे वहाँ फिर से कमरा मिल जाएगा।
 

दोस्त हाथों से कत्ल हुआ

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