Sunday, September 2, 2012

आध्यात्मिक प्रगति के आठ अनिवार्य तत्व


buddha purnima
आध्यात्मिक प्रगति के अनिवार्य तत्वों के विषय में भगवान बुद्ध ने कहा कि ये नियम आठ हैं। तुम लोगों को इन बिन्दुओं को स्मरण रखना चाहिए। पहला है सम्यक् दर्शन। दर्शन क्या है? सामान्य संस्कृत में दर्शन माने देखना; और दार्शनिक भाषा में अथवा आध्यात्मिक और मानसिक क्षेत्र में दर्शन माने किसी वस्तु को ज्ञानी की दृष्टि से देखना, एक साधक की दृष्टि से देखना है। दर्शन का अर्थ है जीवन का निर्देशन शास्त्र।
एक मनुष्य चल रहा है, किन्तु उसके चलने का यदि कोई लक्ष्य नहीं है तो उसके सारे प्रयास, उसका सारा श्रम व्यर्थ हो जायेगा। एक व्यक्ति बहुत कुछ कर सकता है, किन्तु उसकी सारी उपलब्धि बेकार हो जायेगी, यदि उसे अपने लक्ष्य की जानकारी न हो, उसे अपने गन्तव्य का पता न हो, इसलिए प्रत्येक मनुष्य का उसका अपना जीवन दर्शन होना चाहिए। इसके बिना प्रगति असम्भव है। तुम लोगों को स्मरण रखना चाहिए कि यह प्रथम महत्वपूर्ण तत्व है। दूसरा आवश्यक तत्व है सम्यक् संकल्प। यहां सम्यक् संकल्प का अर्थ है दृढ़ आत्मविश्वास। ‘‘मैं इस कार्य को करूंगा’’, ‘‘मुझे निश्चय ही इस कार्य को करना है’’, इस तरह का दृढ़ आत्मविश्वास ही मानव जीवन में सफलता का रहस्य है। भगवान बुद्ध ने इसे दूसरा महत्वपूर्ण तत्व कहा। यह दूसरा आवश्यक तत्व है, जिसे प्रत्येक साधक को अपने जीवन में उतारना ही होगा। तीसरा तत्व है सम्यक् वाक्। एक व्यक्ति जब जीवन के किसी भी क्षेत्र में अपने को व्यक्त करता है तो उसे अपने ऊपर सम्यक् नियन्त्रण रखना चाहिए। इसी को कहते हैं सम्यक् वाक्।
   
चतुर्थ निर्देश है ‘सम्यक् आजीव’। एक अच्छे व्यक्ति को बहुत साफ-सुथरी और पवित्र आजीविका अर्जित करनी चाहिए। उसे निकृष्ट और अनैतिक तरीके से अपनी आजीविका अर्जित नहीं करनी चाहिए। यह चतुर्थ तत्व हुआ। अब पंचम है सम्यक् व्यायाम। तुम लोग जानते हो, बहुत से लड़के अपने शरीर को मजबूत बनाने के लिए अनेक तरह के शारीरिक व्यायाम करते हैं। यह शारीरिक व्यायाम हैं, किन्तु मानव अस्तित्व सिर्फ शारीरिक नहीं है। मानव अस्तित्व शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक, तीनों है। शारीरिक व्यायाम भी अच्छा है, किन्तु तुम्हें मानसिक व्यायाम और आत्मिक व्यायाम भी करना चाहिए। यह पांचवा तत्व हुआ सम्यक् व्यायाम। छठा तत्व है सम्यक् कर्मान्त। जब तुम कोई कार्य शुरू करते हो, तब तुम्हें बहुत कुशलतापूर्वक और सुन्दर तरीके से उसका समापन भी करना चाहिए। किसी भी कार्य को अपूर्ण अवस्था में मत छोड़ो। कार्य का समापन हमेशा सुन्दर होना चाहिए। भगवान बुद्ध ने कहा, सम्यक् कर्मान्त अर्थात् जब तुमने कार्य आरम्भ किया है तो सुन्दर तरीके से इसका समापन भी करना होगा।
   
सप्तम उपदेश है सम्यक् स्मृति। स्मृति क्या है? जब भी अपनी इन्द्रियों द्वारा तुम कुछ देखते हो, कुछ सुनते हो अथवा कुछ गन्ध लेते हो, तब क्या होता है? तुम्हारा मन कुछ स्तरों में विभाजित हो जाता है। तब सम्यक् स्मृति क्या है? इष्ट मन्त्र का जप हमेशा दुहराते रहना चाहिए। तुम्हें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि परमात्मा का स्मरण करना, अपने इष्ट मन्त्र का जप करना तुम्हारा सबसे बड़ा कर्त्तव्य है। यही सम्यक् स्मृति है। अन्तिम तत्व है सम्यक् समाधि। जब तुम किसी संगीत की उत्कृष्ट, मनोरम स्वर-लहरी को सुनते हो, तब वह संगीत तुम्हारे मन का विषय बन जाता है और सुनते समय तुम्हारा विषयी मन उस संगीत में खो जाता है। यह श्रवण में मन की निरुद्धावस्था हुई। इसी तरह जब तुम परमसत्ता, परमपुरुष का ध्यान करते हो, तब तुम्हारा मन उन में खो जाता है। यह सम्यक् समाधि हुई। परमपुरुष के भाव में मन का निलम्बन हो गया।
  
यह अष्टांगिक मार्ग एक आध्यात्मिक साधक के जीवन का आवश्यक अंग है। तुम लोगों को यह हमेशा स्मरण रखना चाहिए कि उस परम आनन्द की प्राप्ति में सफलता पाने के लिए अष्टांग विधि का पालन अनुकरणीय है। तुम्हें अपने मन में सदैव इस बात को याद रखना चाहिए।
(6 मई को आनंदमूर्ति जी की 91वीं जयंती (आनंद पूर्णिमा) के अवसर पर)

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