स्त्रीत्व के अवमूल्यन का खतरा
--राजकिशोर केंद्र
सरकार ने विवाह कानून में कुछ सुधार प्रस्तावित कर उसे आधुनिक समय के अनुकूल बनाया है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। सच तो यह है कि कानून में ये संशोधन बहुत पहले हो जाने चाहिए थे। ऐसा लगता है कि सामाजिक सुधार के मामले में सरकार की सक्रियता बनी हुई तो है, लेकिन प्रक्रिया धीमी है और परिणाम बहुत देर से आते हैं। फिर भी देर आयद दुरुस्त आयद। विवाह कानून में केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा स्वीकृत दो परिवर्तन भारत के लिए क्रांतिकारी महत्व के हैं। आपसी रजामंदी से तलाक के लिए आवेदन को मान्यता एक ऐसा ही क्रांतिकारी कदम था, लेकिन इसमें एक पेच बचा रह गया था। जब दांपत्य जीवन में ऐसा गतिरोध आ जाए, जिसे किसी भी तरह दूर नहीं किया जा सकता और पति-पत्नी में से कोई एक पक्ष दूसरे पक्ष को मुक्त न करना चाहे, तब-तब दूसरे पक्ष के पास मुक्ति का कोई उपाय नहीं था। आपसी सहमति से तलाक की व्यवस्था में एक शालीनता है। पति या पत्नी को एक-दूसरे पर आरोप लगाना नहीं पड़ता। वे अदालत में सिर्फ यह कहते हैं कि अब हम साथ-साथ नहीं रह सकते और हमारे वैवाहिक संबंध को कानून द्वारा भंग कर दिया जाए। लेकिन जब कोई एक पक्ष इसके लिए राजी न हो और दूसरे पक्ष को नष्ट दांपत्य के कीचड़ में लिथड़ते रहने को बाध्य कर दे, तब दूसरे पक्ष के पास निजात पाने का परंपरागत रास्ता ही बचा रहता है। यानी अपने जीवन साथी पर आरोप लगाना, वे आरोप जिनके आधार पर तलाक मिल सकता है। नया कानून इस बाध्यता से छुटकारा दिलाता है। अब कोई भी एक पक्ष अदालत जाकर कह सकता है कि हमारे वैवाहिक जीवन में ऐसा गतिरोध आ गया है, जिसका कोई हल नहीं है। इसलिए अदालत विवाह विच्छेद का आदेश जारी करे। लेकिन पता नहीं क्यों, अब भी हमारे कानून निर्माताओं में स्त्री पक्ष के प्रति एक अतार्किक सहानूभूति बनी हुई है, जिसके कारण लोकतांत्रिक समाधानों में बाधा आती है। मंत्रिमंडल द्वारा स्वीकृत संशोधन में यह प्रावधान मौजूद है कि स्त्री अगर असमाधेय गतिरोध के आधार पर तलाक चाहती है तो पुरुष उसका विरोध नहीं कर सकता। स्त्री की व्याख्या को स्वीकार कर लिया जाएगा। लेकिन अगर पुरुष इसी आधार पर तलाक की याचना करे तो स्त्री उसका विरोध कर सकती है। वह यह दावा कर सकती है कि विवाह में कोई ऐसा गतिरोध पैदा नहीं हुआ है, जिसका समाधान संभव नहीं है। यह प्रावधान संभवत: नारीवादी संगठनों की मांग पर जोड़ा गया होगा, लेकिन स्त्री को हमेशा कमजोर मानकर चलने की प्रवृत्ति अंतत: स्त्रीत्व का ही अवमूल्यन करती है। उम्मीद की जानी चाहिए कि जब यह संशोधन विधेयक संसद में विचार के लिए आएगा, तब इस कमी को दूर कर दिया जाएगा। इतना ही महत्वपूर्ण, बल्कि इससे कुछ ज्यादा ही महत्वपूर्ण संशोधन यह लाया जा रहा है कि तलाक की स्थिति में पत्नी को पति की संपत्ति में हिस्सा मिलेगा। यह एक बहुत ही जरूरी संशोधन है, जो अरसे से स्थगित चला आ रहा था। पति-पत्नी के बीच समानता की हैसियत तभी पूरी हो सकती है, जब विवाह के भीतर दोनों की आर्थिक स्थिति बराबर हो। अभी तक खबर थी कि वैवाहिक जीवन में ही पारिवारिक संपत्ति पर दोनों का आधा-आधा हक होगा, जैसा कि गोवा के कानून में है। अब ऐसा लग रहा है कि सरकार ने यह विचार त्याग दिया है। अब केवल तलाक की स्थिति में ही पत्नी को पति की या पति को पत्नी की संपत्ति में हिस्सा मिलेगा। इस बदलाव का कोई तार्किक आधार नहीं है। जो अधिकार वैवाहिक जीवन में नहीं है, वह तलाक के समय अचानक कैसे प्रकट हो जा सकता है। यह भी मुनासिब नहीं लग रहा है कि तलाक की हालत में पत्नी को पति की संपत्ति में कितना हिस्सा मिलेगा, यह फैसला अदालत पर छोड़ दिया गया है। अदालत की इस भूमिका से पेचीदगी पैदा होना अनिवार्य है। तलाक के निर्णय पर पहुंचने के पहले पत्नी तय नहीं कर सकती कि विवाह विच्छेद के बाद उसकी आर्थिक हैसियत क्या होगी। इस अस्पष्टता से उसे उचित निर्णय तक पहुँचने में दिक्कत हो सकती है। बेहतर है कि संसद ही इस अनुपात को तय कर दे। लोकतंत्र की मांग तो यही है कि 50:50 ही संपत्ति विभाजन का मूल आधार हो। यह अदालत पर जरूर छोड़ा जा सकता है कि भविष्य में किस पक्ष के कंधों पर कितनी आर्थिक जिम्मेदारी आ रही है। इसे ध्यान में रखते हुए वह संपत्ति विभाजन के इस फार्मूले में कुछ फेरबदल कर सकती है। व्यावहारिकता भी यही कहती है, लेकिन अगर सब कुछ अदालत पर छोड़ दिया जाता है तो पत्नी में वैवाहिक जीवन के दौरान बराबरी का वह एहसास पैदा नहीं हो सकता, जो 50:50 के प्रावधान से अपने आप आ जाता है। संपत्ति के विभाजन जितना ही महत्वपूर्ण पक्ष है, गुजारे की व्यवस्था। यह एक जटिल मामला है। आज तक मेरी समझ में नहीं आया कि जब पति-पत्नी दोनों कमा रहे हों तो तलाक के बाद पत्नी को गुजारे की रकम क्यों मिलनी चाहिए। न तो पति बनकर कोई पत्नी पर एहसान करता है, न पत्नी बन कर कोई पति पर एहसान करती है। कायदे से सब को अपनी रोटी खुद कमानी चाहिए। समाज में जब तक ऐसी स्थितियां नहीं आ जातीं, तब तक आर्थिक दृष्टि से कमजोर पक्ष को राहत मिलनी चाहिए। लेकिन यह राहत उम्र भर के लिए नहीं हो सकती। इस दृष्टि से यह प्रस्तावित बदलाव स्वागत योग्य है कि तलाक की हालत में पत्नी-पत्नी के बीच आर्थिक समझौता हो सकता है। इससे एक ही बार में मामला निपट जाएगा। प्रस्तावित संशोधन में इसकी भी व्यवस्था है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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