Friday, April 6, 2012

Poverty line गरीबी रेखा के निर्धारण का सवाल



गरीबी रेखा के निर्धारण का सवाल
---प्रमोद भार्गव
(योजना आयोग द्वारा दी गई गरीबी रेखा के नए मानक के मुताबिक भारत में गरीबी घटी है, जबकि वास्तविक हालात कुछ और ही हैं। दरअसल सरकार गरीबों की संख्या जानबूझकर कम दिखाना चाहती है ताकि उसे गरीबी योजनाओं के लिए कम पैसा खर्च करना पड़े, लेकिन सवाल गरीबी के आकलन आधार का भी है। अभी तक हम यह भी नहीं तय कर सके हैं कि गरीबी का आकलन कैलोरी के आधार पर किया जाए या खाद्यान्न मूल्य सूचकांक पर)  
 
देश में गरीबी रेखा की खिल्ली उड़ाने के साथ ही योजना आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय की भी खिल्ली उड़ाई है, क्योंकि अदालत ने यह दिशा-निर्देश दिए थे कि गरीबी रेखा इस तरह से तय की जाए कि वह यथार्थ के अधिक निकट हो। इसके बावजूद योजना आयोग ने देश की शीर्ष न्यायालय को आईना दिखाने का काम किया। गरीबी के जिन आंकड़ों को अनुचित ठहराते हुए न्यायालय ने आयोग को लताड़ा था, योजना आयोग ने आमदनी के उन आंकड़ों को बढ़ाने की बजाय और घटा दिया है जो किसी भी दृष्टि से न्यायसंगत नहीं माना जा सकता है। पूरे देश के गरीबों से जुड़े मुद्दे को एक न्यायसंगत मुकाम तक पहंुचाने की उम्मीद देश की जनता को अब सिर्फ सर्वोच्च न्यायालय से है। यह अलग बात है कि देश में गरीबी मापने के लिए पेश किए गए अवास्तविक पैमाने की फजीहत के बाद सरकार ने इसे फिलहाल खारिज कर दिया है और कोई नया पैमाना तलाशने का भरोसा जताया है, जिसके लिए प्रधानमंत्री ने नई समिति के गठन की बात कही है। यहां सवाल है कि यह सब तभी क्यों होता है जबकि मीडिया और तमाम बुद्धिजीवियों द्वारा प्रश्न खड़े किए जाते हैं। यदि सरकार वाकई गरीबों के प्रति गंभीर होती तो वह ऐसा रिपोर्ट पेश करने की हिम्मत शायद ही दिखाती। गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रहे लोगों की संख्या में कमी आने की सरकार और योजना आयोग के दावों को लगातार नकारे जाने के बावजूद भी हठधर्मिता अपनाई जा रही है। आयोग ने कुछ समय पहले सर्वोच्च न्यायालय में शपथपत्र देकर बताया था कि शहरी व्यक्ति की आमदनी प्रतिदिन 32 रुपये यानी 965 रुपये प्रतिमाह और ग्रामीण क्षेत्र के निवासियों की आय प्रतिदिन 26 रुपये यानी 781 रुपये प्रतिमाह होने पर गरीब माना जाएगा। गरीबी का मजाक बनाए जाने वाली इस रेखा को न्यायालय ने वास्तविकता से दूर होने के कारण गलत ठहराया था और योजना आयोग को नई गरीबी रेखा तय करने के संदर्भ में निर्देश भी दिए थे। परंतु योजना आयोग ने जो नई गरीबी रेखा तय की है उसमें देश के शीर्ष न्यायालय के दिशा-निर्देशों को भी धता बता दिया गया। गरीबों की आय का दायरा और घटाकर यही जताने की कोशिश की गई है कि योजना आयोग न तो न्यायालय से सहमत है और न ही उसके निर्देश मानने के लिए वह फिलहाल तैयार है। अपनी बनी बनाई धारणा के मुताबिक आयोग ने गरीबी रेखा की जो नई परिभाषा दी है उसके अनुसार अब शहरी क्षेत्रों के लिए 29 रुपये प्रतिदिन और ग्रामीण क्षेत्रों के लिए 22 रुपये प्रतिदिन आय की सीमा रेखा में आने वाले लोगों को गरीब माना जाएगा। जबकि आयोग को अदालत की मर्यादा का हर हाल में पालन करना चाहिए था जिससे जनता में यह विश्वास बना रहता कि वाकई न्यायालय सर्वोच्च है। संसद में आयोग की दलील को खारिज करने के बाद सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकर समिति के सदस्य एनसी सक्सेना ने भी यह स्वीकार किया है कि सरकार का यह कहना कि गरीबी घटी है सही नहीं है। इसलिए बेहतर यही होगा कि गरीबी रेखा का वास्तविक मूल्यांकन किया जाए, क्योंकि देश की 70 फीसदी आबादी आज भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करने को विवश है। बहुमुखी अथवा बहुस्तरीय गरीबी के मूल्यांकन का मकसद यही है कि केवल आहार के आधार पर गरीबी रेखा का निर्धारण न किया जाए, बल्कि उसमें पोषक आहार, स्वच्छता, पेयजल, स्वास्थ्य सेवा, शैक्षणिक सुविधाओं के साथ वस्त्र और दूसरी बुनियादी जरूरतों को भी अनिवार्य रूप से शामिल किया जाए। 66वें घरेलू उपभोक्ता खर्च सर्वेक्षण (जिस पर ताजा आंकड़े आधारित हैं) के अलावा 2011 की जनगणना और राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षणों में भी यह स्वीकार किया गया है कि देश भले ही तेजी से आर्थिक तरक्की के पथ पर अग्रसर है, लेकिन गरीबों और अमीरों के बीच विषमता भी तेजी से बढ़ी है। इससे साफ है कि वंचित लोगों के अधिकारों पर लगातार कुठाराघात हो रहा है। दलित, आदिवासी और मुस्लिम लोग विभिन्न अंचलों में सवर्णो और पिछड़ों की तुलना में काफी गरीब हैं। किसान और खेतिहर मजदूर गरीबी से उबर ही नहीं पा रहे हैं। इसी सामाजिक यथार्थ को समझते हुए एशियाई विकास बैंक की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि यदि महंगाई इसी तरह बढ़ती रही और इस पर लगाम न लगाया जा सका तो भारत में तीन करोड़ और लोग गरीबी रेखा के नीचे आ जाएंगे। दरअसल गरीबी के आकलन के जो भी सर्वेक्षण हुए हैं वह उस गलत पद्धति पर चले आ रहे हैं जिसे योजना आयोग ने 33 साल पहले अपनाने की भूल की थी। हैरानी इस बात पर भी है कि जातिगत जनगणना भी इसी आधार पर कराई जा रही है। दरअसल योजना आयोग ने चालाकी से गरीबी रेखा की परिभाषा बदल दी और इसे केवल पेट भरने लायक भोजन तक सीमित कर दिया और साथ ही इसे अन्य बुनियादी जरूरतों से भी अलग कर दिया। इसी आधार पर 1979 से भोजन के खर्च को गरीबी रेखा का आधार बनाया गया है, जबकि इससे पहले पौष्टिक आहार को आधार बनाया गया था। इस कारण 1973-74 में खाद्यान्न मूल्यों का खयाल रखते हुए जो गरीबी रेखा तय की गई थी उसमें शहरी क्षेत्र में 56 रुपये और ग्रामीण क्षेत्र में 49 रुपये प्रतिदिन आमदनी वाले व्यक्ति को गरीब माना गया था। इतने पैसे से 2200 व 2100 किलो कैलोरी पोषक आहार हासिल किया जा सकता था, लेकिन आगे चलकर योजना आयोग ने इस परिभाषा को बदलते हुए गरीबी रेखा के आंकड़ों को मुद्रास्फीति और मूल्य सूचकांक की जटिलता से जोड़ दिया। इस तरह गरीबी रेखा के आंकड़ों को मुद्रास्फीति के आधार पर समायोजित करके मूल्य सूचकांक के आधार पर नया आंकड़ा निकाला गया। पिछले 30-35 साल से मूल्य सूचकांक आधारित समायोजन की बाजीगरी के चलते गरीबों की आय तय की जा रही है। इसी पैमाने का नतीजा है कि 29 और 22 रुपये प्रतिदिन आय को गरीबी रेखा का आधार बनाया गया है जो न केवल असंगत है, बल्कि हास्यास्पद भी। यह देश का दुर्भाग्य है कि हमारे योजनाकार विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और उद्योग जगत से निर्देशित हो रहे हैं इसलिए वे शीर्ष न्यायालय की फटकार के बावजूद गरीबी पर पर्दा डालने की कोशिशें कर रहे हैं, जिसे किसी भी तरह स्वीकार नहीं किया जा सकता। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
 
गरीबी पर गलत बहस
--अवधेश कुमार
योजना आयोग द्वारा गांवों में 22.42 रुपये तथा शहरों में 28.65 रुपये प्रतिदिन आय को गरीबी रेखा निर्धारित किए जाने से ऐसा लग रहा है जैसे सारे गरीब हितैषियों की आत्मा जग गई है। गरीबी रेखा पर ऐसा दृश्य कोई पहली बार नहीं है। पिछले वर्ष जून में जब सरकार ने उच्चतम न्यायालय में गांवों के लिए 26 रुपये तथा शहरों के लिए 32 रुपये प्रतिदिन पर गुजर-बसर करने वालों को गरीब मानने का शपथपत्र दाखिल किया तो भी ऐसा ही हंगामा हुआ था। पहले भी संसद और मीडिया में गरीबी हॉट टॉपिक था और आज भी, लेकिन सवाल है इन तमाम बहसों और लड़ाइयों का हश्र क्या हुआ क्या? वास्तव में गरीबी रेखा निर्धारण का मानक यदि गलत है तो उसका विरोध करने वालों के पास रचनात्मक सुझाव शायद ही हो। योजना आयोग, ग्रामीण विकास मंत्रालय और बाकी अध्ययनों की स्थिति कमोबेश एक जैसी है। यदि कुछ अंतर है तो वह पैमाने के स्तर पर है। गरीबों के जेब की ताकत का निर्धारण उदारता से भी कर दिया जाए तो क्या होने वाला है? मात्र गरीबी कम करने की बजाय आज पूरा जोर गरीबी के पैमाने और आंकड़ों पर है। यह सिवाय बाजीगरी के और कुछ नहीं। किसी के न्यूनतम जीविका का आधार क्या है और उनकी न्यूनतम आवश्यकताएं कितने में पूरी हो सकती हैं, यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका निष्पक्ष उत्तर संभव नहीं, क्योंकि हर एक की जरूरतें और स्थितियां अलग-अलग होती हैं। 28 रुपया किसी के जीवन जीने का जब मानक माना जाता है तो हम उबल पड़ते हैं और यह अस्वाभाविक भी नहीं है, क्योंकि जब हम इसके अंतरराष्ट्रीय मानक दो डॉलर से तुलना करते हैं तो यह हंगामा वाजिब लगता है। यहां नहीं भूलना चाहिए कि गरीबी रेखा का अर्थ वास्तव में कंगाली की रेखा है। एक व्यक्ति जो कंगाल है, जिसे पेट भरने के लिए रुखा-सूखा भोजन तक उपलब्ध नहीं और जिसे जीवन जीने के लिए भी सरकारी मदद की आवश्यकता है उसकी गणना की कोशिश हो रही है। हमें इस पर भी विचार करना चाहिए कि आखिर गरीबी रेखा का निर्धारण एवं उससे नीचे जीवन जीने वालों की खोजबीन क्यों की जाती है? दरअसल ऐसे लोगों के नाम पर केंद्र एवं राज्यों की कई सरकारी योजनाएं चलती हैं। इसलिए इसका सर्वप्रमुख उद्देश्य यह देखना होता है कि कितने लोगों के लिए योजनाएं बनानी होंगी और इसके लिए कितनी राशि की जरूरत होगी। गरीबों की संख्या कम दिखाने की कोशिश के पीछे सरकारी मद में कम पैसे का आवंटन छिपा होता है। आखिर इस पर क्यों नहीं विचार होता कि पिछली योजनाओं का लाभ कितने लोगों को मिला और कितने लोग गरीबी रेखा से ऊपर आए। बात चाहे मनरेगा की हो या सस्ती खाद्यान्न योजना अथवा अन्य योजनाएं, सभी के केंद्र में गरीबी रेखा से नीचे जीवन जीने वाला तबका होता है। यदि मानक बड़ा बनेगा तो फिर योजनाओं का विस्तार भी ज्यादा होगा और संसाधन भी ज्यादा लगेंगे व खर्च भी ज्यादा होगा। दुनिया के प्रमुख देशों में ऐसी स्थिति नहीं है। अमेरिका, यूरोप में गरीबी के लिए कार्यक्रम हैं, लेकिन हमारे यहां की तरह नहीं। आज जरूरत है कि सामाजिक-आर्थिक स्थिति का ईमानदार आकलन हो ताकि हम स्वयं का आत्मावलोकन कर सकें। जो लोग हंगामा कर रहे हैं वे इस बात पर क्यों नहीं द्रवित होते कि इतनी न्यूनतम राशि का मानक निर्धारित करने पर भी हमारे देश की लगभग एक तिहाई आबादी कंगाली में जीने को अभिशप्त है? आखिर राज्यों में सत्तारुढ़ दलों को इनके लिए प्राथमिकता के आधार पर काम करने से किसने रोक रखा है। गैर सरकारी संगठन जिन्हें सामाजिक संगठन कहा जाता है वे भी बिना फंड के कोई काम शायद ही हाथ में लेते हैं। गरीबों की समस्या यह भी है कि मानक कम कर देने पर भी उनकी अवस्था नहीं बदलने वाली। एक और नजरिये से विचार करने की आवश्यकता है कि जिस देश में परिवार व्यवस्था है वहां व्यक्ति के आधार पर पश्चिमी कल्पना के मापदंड किस तरह प्रासंगिक हो सकते हैं। सच यह है कि व्यक्तियों के आधार पर आकलन से हमारी समाज व्यवस्था टूट रही है। चूंकि एक व्यक्ति की शादी होते ही सरकारी योजनाओं में वह एक अलग ईकाई हो जाता है इसलिए गरीबी रेखा का लाभ उठाने के लिए कम उम्र में शादियां हो रही हैं। भारतीय अवधारणा में संपन्नता का मापदंड आर्थिक माना भी नहीं जा सकता। गांधीजी ऐच्छिक गरीबी की बात कहा करते थे और वह आजादी के बाद भारत के पुनर्निमाण का आधार भी इसे ही बनाना चाहते थे। आज के मानक पर तो गांधीजी भी गरीब होते।

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