Saturday, March 17, 2012

सागर में जहर घोलता कचरा



सागर में जहर घोलता कचरा
--पंकज चतुर्वेदी
उन दिनों इंसान के लिए समुद्र एक अनबूझ पहेली की तरह था। समुद्री यात्राएं मौत का पर्याय मानी जाती थीं और बहुत कम लोग महासागर की रोमांचक यात्रा कर जिंदा वापस लौट पाते थे। आज मानव ने समुद्र की गहराइयों को बहुत हद तक नाप लिया है। भौतिक सुखों का माध्यम बन गई हैं यह अथाह जलनिधि। इंसान के लिए भले ही यह उपलब्धि हो, लेकिन समुद्र के लिए तो यह अस्तित्व का खतरा बन रही है। आज जब पर्यावरण संरक्षण पर हर स्तर पर हल्ला-गुल्ला मचा हुआ है तब ऐसे में समुद्रों की अनूठी पारिस्थितिकी के छिन्न-भिन्न होने पर कम ही चर्चा हो रही है। पृथ्वी के अधिकांश हिस्से पर कब्जा जमाए सागरों की विशालता मानव जीवन को काफी हद तक प्रभावित करती है। हालांकि आम आदमी इस तथ्य से लगभग अनभिज्ञ हैं। जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं उसके मौसम और वातावरण में नियमित बदलाव का काफी कुछ दारोमदार समुद्र पर ही होता है। विश्व की बढ़ती जनसंख्या के लिए भोजन, रोजगार और ऊर्जा मुहैया कराने का दारोमदार भी अब समुद्रों पर है। इसके बावजूद समुद्रों के दूषित होने के मसले को नदी या वायु प्रदूषण की तरह बहुत गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। समुद्र वैज्ञानिक इस बात से चिंतित हैं कि सागर के तल खाली बोतलों, केनों, अखबारों व शौच-पात्रों के अंबार से पटती जा रही हैं। मछलियों के अंधाधुंध शिकार और मूंगा की चट्टानों की बेहिसाब तुड़ाई के चलते सागरों का पर्यावरण संतुलन गड़बड़ा रहा है। धरती के बाशिंदे समुद्रों के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं। शहरों की गंदी नालियां, कचरा और कारखानों का अपशिष्ट सीधे समुद्रों में उड़ेला जा रहा है। आज समुद्र प्रदूषण का 70 फीसदी हिस्सा धरती के निवासियों की लापरवाही के कारण है। यह आश्चर्यजनक लेकिन सत्य है कि गंदी नालियों की सीमित मात्रा यदि समुद्र में मिले तो यह फायदेमंद है। घरों की निकासी में मौजूद नाइट्रेट और फास्फेट समुद्र को उपजाऊ बनाते हैं। इससे छोटे पौधों की पैदावार बढ़ती है और इससे मछलियों को बेहतरीन भोजन मिलता है, लेकिन यदि इन लवणों की मात्रा बढ़ जाए तो इससे समुद्र को खतरा बढ़ जाता है। छोटे पौधों की संख्या बढ़ने से जल की गहराई में काई की परत मोटी हो जाती है। फलस्वरूप सूर्य का प्रकाश भीतर तक नहीं जा पाता है और प्रकाश संश्लेषण की क्रिया या तो कम हो जाती है या फिर पूरी तरह रुक जाती है। इससे कार्बन डाईऑक्साइड की अधिक मात्रा उत्सर्जित होने लगती है और साथ ही इस प्रक्रिया में ऑक्सीजन का खर्च बढ़ जाता है। महत्वपूर्ण है कि यह ऑक्सीजन पानी में घुली आक्सीजन से ही प्राप्त होती है। इससे एल्गी यानी काई नष्ट होने लगती है। निर्जीव एल्गी में बैक्टीरिया उत्पन्न हो जाते हैं और इससे पानी में सड़न पैदा हो जाती है। इस तरह पानी में प्राण वायु का स्तर बेहद कम हो जाता है और वहां मौजूद सभी जलजीव मरने लगते हैं। ठीक यही हालत समुद्र में तेल रिसने पर होती है। खाड़ी देशों में लगातार युद्ध के चलते गत एक दशक में कई लाख गैलन तेल समुद्र में फैलता रहा जिसका सीधा असर वहां के जीवों पर पड़ा है। जब तटों के करीब की मछलियां शहरी प्रदूषण के कारण मरीं तो मछली मारने की बड़ी मशीनों ने गहराई में यह काम कर दिया। अनुमान है कि हर साल 150 हजार मीट्रिक टन प्लास्टिक के जाल व रस्सियां समुद्र में पड़ी रह जाती हैं और जिसे खाकर लाखों व्हेल, सील व डॉल्फीन जैसी मछलियां बेमौत मारी जाती है। भारत में तो गणेश या दुर्गा पूजा के बाद प्रतिमाओं के विसर्जन ने कई किलोमीटर तक समुद्र को जीवविहीन बना दिया है। कारखानों से निकला दूषित मलवा सागरों के लिए एक बड़ा खतरा है। साथ ही समुद्र में बढ़ता यातायात भी वहां के पर्यावरण का दुश्मन बन गया है। समुद्री जहाजों से गिरने वाला तेल, पेट्रोलियम पदार्थ, कीटनाशक, विषैली गैसों के खाली सिलेंडर, औद्योगिक प्रशीतन आदि दिनों-दिन समुद्र के मिजाज को जहरीला बना रहे हैं। इस बढ़ते प्रदूषण के चलते समुद्र तटों, खाडि़यों, आदि में मछली पकड़ने वालों पर विपरीत असर पड़ रहा है। पानी के विषैला होने के कारण जलचर जीवों के विकास, उनकी वृद्धि, भोजन, श्वसन क्रिया और उनमें रोगों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता बुरी तरह प्रभावित हो रही है। भारत में पश्चिम के गुजरात से नीचे आते हुए कोंकण फिर मलाबार और कन्याकुमारी से ऊपर की ओर घूमते हुए कोरोमंडल और आगे बंगाल के सुंदरवन तक कोई 5600 किलोमीटर सागर तट है। यहां नेशनल पार्क व सेंचुरी जैसे 33 संरक्षित क्षेत्र हैं। इनके तटों पर रहने वाले करोड़ों लोगों की आजीविका का साधन समुद्र से निकलने वाले मछली व अन्य उत्पाद ही हैं। विडंबना यह है कि हमारे समुद्री तटों का पर्यावरणीय संतुलन तेजी से गड़बड़ा रहा है। मुंबई महानगर को कोई 40 किलोमीटर समुद्र तट का प्राकृतिक आशीर्वाद मिला हुआ है, लेकिन इसके नैसर्गिग रूप से छेड़छाड़ का ही परिणाम है कि यह वरदान अब महानगर के लिए आफत बन गया है। इस महानगर में कई चौपाटियां हैं, जो पर्यावरणीय त्रासदी का वीभत्स उदाहरण हैं। कफ परेड से गिरगांव चौपाटी तक कभी केवल सुनहरी रेत, चमकती चट्टानें और नारियल के पेड़ झूमते दिखते थे। कोई 75 साल पहले अंग्रेज शासकों ने वहां से पुराने बंगलों को हटाकर मरीन ड्राइव और बिजनेस सेंटर का निर्माण करवा दिया। उसके बाद तो मुंबई के समुद्री तट गंदगी, अतिक्रमण और बदबू के भंडार बन गए। जुहू चौपाटी के छोटे से हिस्से और फौज के कब्जे वाले नवल चौपाटी (कोलाबा) के अलावा समूचा समुद्री किनारा कचरे और मलबे के ढेर में तब्दील हो गया है। तभी थोड़ी सी बरसात या ज्वारभाटा में शहर कराहने लगता है। देश की पर्यटन राजधानी कहलाने वाले गोवा के कालानगुटे, बागा, अंजुना, बागटोर आदि चर्चित समुद्री तट पर्यटकों द्वारा फेंके गए कचरे से पट रहे हैं। शहर का कचरा भी लहरों के साथ किनारे पर आ जाता है और कीचड़ की गहरी परत छोड़ जाता है। चेन्नई के मरीना बीच के सौंदर्यीकरण पर तो खूब खर्च किया जा रहा है, लेकिन पर्यावरणीय छेड़छाड़ पर कोई रोकटोक नहीं है। पुरी में हाईकोर्ट के सख्त आदेश के बावजूद समुद्र से 500 मीटर के दायरे में कई होटल बनाए गए हैं। समुद्र के किनारे बसे शहरों व होटलों से उत्सर्जित कचरे व अपशिष्टों के चलते जीवनरेखा कहलाने वाले समुद्र तट बंजर और वीरान हो गए हैं। मछली पकड़ने के लिए बड़ी व शक्तिशाली मोटरबोटों की व्यवस्था करना बहुत कम मछुआरों के लिए ही संभव हो पाता है। इस तरह समुद्री प्रदूषण लाखों लोगों के लिए रोजी-रोटी का संकट भी बन गया है। समुद्र तटों के संरक्षण के कई कानून हैं। इस बारे में कई अदालतों ने भी समय-समय पर निर्देश दिए हैं, लेकिन इस दिशा में समाज से जिस जागरूकता की अपेक्षा है उसका सर्वथा अभाव ही दिखाई देता है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

No comments:

Post a Comment


Popular Posts

Total Pageviews

Categories

Blog Archive