Saturday, March 17, 2012

चुनाव प्रणाली पर सवाल




चुनाव प्रणाली पर सवाल
 
जुलूस निकालने, झंडा लहराने, समूह में निकलने या पोस्टर चिपकाने पर चुनाव आयोग की पाबंदी के कारण भारत में चुनाव का उत्सवी रंग समाप्त हो गया है, लेकिन इन पाबंदियों के कारण चुनाव का खर्च कम नहीं हुआ है। उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा विधानसभा के चुनाव में जो खर्च हुआ उतना खर्च कभी राज्यों के चुनाव में नहीं हुआ था। मोटे तौर पर तकरीबन दो हजार करोड़ रुपये खर्च हुए। तुलनात्मक दृष्टि से सबसे ज्यादा खर्च पंजाब में हुआ। चुनाव आयोग इसे रोकने के लिए कुछ नहीं कर सकता था। कोई लोकपाल इसका पता नहीं लगा सकता, क्योंकि वोट खरीदने का काम व्यक्तिगत स्तर पर गोपनीय ढंग से हुआ। हम लोगों के समय में कार्यकर्ता झोला टांगकर, चना-चबेना लेकर पैदल घूमा करते थे। वे जमीनी स्तर पर चुनाव प्रचार करते थे, लेकिन आज तो पार्टी का एक साधारण कार्यकर्ता भी चुनाव प्रचार के लिए जीप की मांग करता है, सुबह के नाश्ते से लेकर चारो पहर के खाने की अपेक्षा करता है। प्रेरणा के तहत काम करने वालों में सिर्फ कम्युनिस्ट कामरेड और आरएसएस प्रचारक ही बचे हैं। अब तो इन लोगों के बीच भी पहले वाला समर्पण भाव नहीं रह गया है। चुनाव आयोग ने करीब 50 करोड़ रुपये और शराब से लदे कुछ ट्रकों को जब्त किया, लेकिन यह उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों द्वारा किए गए खर्च का एक प्रतिशत भी नहीं है। चुनाव में कोई हिंसा नहीं हुई। इसका श्रेय चुनाव आयोग और मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी को जाता है। आदर्श आचार संहिता का लागू होना चुनावों के लिए एक खास बात साबित हुई है। इसे लेकर बीस साल पहले सभी राजनीतिक दलों के बीच सहमति बनी थी। इस मसले पर सिर्फ कांग्रेस पार्टी ने चुनाव आयोग को आड़े हाथों लिया और आचार संहिता को वैधानिक बना देने की धमकी दे डाली ताकि इसके उल्लंघन के मामलों को चुनाव आयोग के बजाए कोर्ट में घसीटा जा सके। दरअसल, चुनाव आयोग में कार्रवाई तुरंत हो जाती है और शिकायतों पर तत्काल ध्यान दिया जाता है, लेकिन सरकार की इस उलट सोच के कारण समझ में आते हैं। हकीकत यह है कि कांग्रेस पार्टी खुद ही सबसे बड़ी गुनहगार साबित हुई है। कानून मंत्री सलमान खुर्शीद से लेकर राहुल गांधी तक ने आचार संहिता को ठेंगा दिखाने में कोई कोताही नहीं की। कांग्रेस ने धार्मिक कार्ड का भी इस्तेमाल किया और सत्ता में आने पर शिक्षा एवं रोजगार में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित 27 प्रतिशत के कोटे में से 9 प्रतिशत मुसलमानों के लिए आरक्षित करने की घोषणा की। चुनाव आयोग ने जब चुनाव प्रचार के दौरान कोटे के अंदर कोटे की घोषणा करने के लिए कानून मंत्री की खिंचाई की तब पहले तो मंत्री महोदय ने ऐंठ दिखाई, लेकिन बाद में लिखित माफी मांग ली। अगर एक और केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा ने मुसलमानों के लिए सब-कोटा की बात नहीं दोहराई होती तो यह मामला तुरंत खत्म हो गया होता, लेकिन उन्होंने चुनाव आयोग को अदालत में भी चुनौती दे डाली है। पिछड़े मुसलमानों को आरक्षण मिले, इससे किसी का विरोध नहीं है। आपत्ति धार्मिक आधार पर आरक्षण के सवाल पर है। भारत का संविधान इसकी अनुमति नहीं देता। चुनाव के दौरान राहुल गांधी कुछ अलग ही पिच पर बैटिंग करते दिखे। जो व्यक्ति भारत का प्रधानमंत्री बन सकता है, उसके लिए ऐसी हरकतें शोभा नहीं देतीं। उन्होंने एक विपक्षी दल के चुनावी घोषणापत्र को फाड़ डाला और ऐसी टिप्पणियां कीं जिसे करने में सड़क छाप आदमी भी संकोच महसूस करेगा। निर्धारित समय और रास्ते से इतर जाकर रोड शो करने के लिए उनके खिलाफ अदालत में एक मामला भी दर्ज किया गया। अगर उन्होंने माफी मांग ली होती तो मामला खत्म हो गया होता, लेकिन वह अड़े रहे। वास्तव में उत्तर प्रदेश में सोनिया गांधी की बेटी प्रियंका के पति समेत पूरा गांधी परिवार लगा रहा। इस राज परिवार ने मान रखा है कि सिर्फ वही भारत की एकता को कायम रख सकता है और कांग्रेस को छोड़कर बाकी सभी राजनीतिक पार्टियां संकीर्ण और सीमित हैं। इसीलिए यह पूरा का पूरा राज परिवार उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को अस्तित्वविहीनता के दलदल से निकालने में जुटा हुआ था। खेद की बात है कि पार्टी ने राजनीतिक अपील के लिए धर्म का सहारा लिया, जबकि इस परिवार के मुखिया जवाहर लाल नेहरू अपने पूरे जीवनकाल में धर्म को राजनीति से जोड़ने की निंदा करते रहे थे। 19 प्रतिशत वोटर मुसलमान हैं और कांग्रेस ने इस चुनाव में इन मुसलमान वोटरों को लुभाने के लिए अपनी पंथनिरपेक्ष पहचान से समझौता किया। भाजपा से माहौल को सांप्रदायिक बनाने की आशंका थी, लेकिन यहां तो पहला पत्थर कांग्रेस ने ही फेंक दिया। ऐसे में भाजपा को क्या दोष दिया जाए? भाजपा को उत्तर प्रदेश में नरेंद्र मोदी की जरूरत नहीं पड़ी, क्योंकि यहां उमा भारती ही मुसलमानों के खिलाफ काफी आग उगल चुकी थीं। दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि हर इलाके में जाति और उपजाति का इस्तेमाल बढ़ा है। जाति की यह बुराई मुसलमानों तक फैल गई है, जबकि इस्लाम में जाति व्यवस्था को मानने पर पाबंदी है। हकीकत तो यह है कि जातीय भेदभाव से मुक्ति पाने के लिए ही अनेक हिंदुओं ने इस्लाम धर्म को स्वीकार किया, लेकिन अब वे पा रहे हैं कि मुस्लिम समाज भी हिंदुओं की तरह ही ऊंची और नीची जातियों में बंटा हुआ है। बहरहाल, चुनाव स्वतंत्र एवं निष्पक्ष हुआ, इसके लिए चुनाव आयोग बधाई का पात्र है, लेकिन जब पैसा, जाति और धर्म के खेल ने चुनाव को मजाक बना दिया तो फिर क्या ऐसे चुनाव को स्वतंत्र और निष्पक्ष माना जा सकता है? इस सवाल का जवाब चुनाव आयोग को नहीं, बल्कि सभी राजनीतिक दलों को देना है। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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