Tuesday, March 20, 2012

आम जनता की कसौटी पर आम बजट



आम जनता की कसौटी पर आम बजट
-निरंकार सिंह
महंगाई से त्रस्त जनता के लिए नया बजट नई मुसीबतें लेकर आया है। यह अभूतपूर्व टैक्स वाला बजट है। पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतें बढ़ने का संकेत देकर सरकार ने जनता पर दोहरा बोझ लाद दिया है। वित्तमंत्री ने सभी स्तरों पर उत्पाद शुल्क की दर एक से दो फीसदी बढ़ा दी है। इसके दायरे में आने वाली सैकड़ों चीजे महंगी हो जाएंगी। सेवा शुल्क की दर दो फीसदी बढ़ने से आम आदमी की तो कमर ही टूट जाएगी। सेवाकर का दायरा 117 सेवाओं से बढ़ाकर 219 सेवाओं पर लागू कर दिया गया है। लगभग पूरा सेवा क्षेत्र टैक्स के दायरे में आ गया है। करों का यह बोझ मंदी की तरफ बढ़ती अर्थव्यवस्था में मांग को सीमित कर सकता है। इससे विकास प्रभावित होगा। वेतनभोगी कर्मचारियों को पहला झटका बजट से पहले कर्मचारी भविष्यनिधि के ब्याज में कटौती करके दिया गया है। आयकर सीमा 20 हजार रुपये बढ़ाकर मामूली राहत देने की कोशिश की गई है, लेकिन उससे कई गुना अधिक वसूल लिया गया है। बजट में खेती को लेकर कुछ कोशिशें की गई हैं। लेकिन उन पर अमल कैसे होता है, यह देखने वाली बात होगी। समाज के पिछड़े वर्गो और महिलाओं के लिए यह बजट निराशाजनक ही रहा है। आर्थिक सर्वे में स्वीकार किया गया है कि विकास का लाभ सभी लोगों तक नहीं पहुंच पा रहा है, लेकिन इस कमी को दूर करने का कोई संकल्प और प्रावधान बजट में नहीं किया गया है। सरकार ने अर्थव्यवस्था के बेहतर भविष्य का भरोसा दिलाने का प्रयास किया है, लेकिन दिसंबर में खत्म हुई तिमाही के आंकड़े बताते हैं कि आर्थिक वृद्धि दर करीब छह फीसदी रह गई है। तीन साल में पहली बार ऐसा हुआ है, जब यह सात फीसदी से नीचे है। अब अगर औद्योगिक विकास दर में नई जान नहीं फूंकी गई तो न सिर्फ कुल जमा विकास दरों में कमी आएगी, बल्कि रोजगार के नए अवसर भी नहीं पैदा होंगे। भारत जैसे देश के लिए यह बहुत जरूरी है, जहां हर साल डेढ़ से दो करोड़ कामगार बढ़ जाते हैं। लेकिन इस बजट से तो महंगाई का प्रभाव औद्योगिक विकास पर पड़ेगा और इससे नए रोजगारों के सृजन में बाधा आएगी। आर्थिक सर्वेक्षण का कहना है कि उद्योगों की अधिकतम संभावनाओं को व्यावसायिक आत्मविश्वास बहाल करके अधिक उत्पादन बढ़ाने वाले निवेश से और बाधाओं को दूर करके ही हासिल किया जा सकता है। यह भी कहा गया है कि मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ाने पर सबसे ज्यादा ध्यान देना होगा, क्योंकि औद्योगिक क्षेत्र के विकास दर को 14 फीसदी तक पहुंचाना है तो मैन्युफैक्चरिंग की विकास दर 2022 तक 25 फीसदी पर पहुंच जानी चाहिए। इसके लिए जो कुछ तरीके सुझाए गए हैं, उनमें हैं प्रस्तावित मैन्युफैक्चरिंग जोन और कृषि उत्पादों की सप्लाई के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर हेतु जमीन उपलब्ध कराना, हाई वैल्यू एडीशन उद्योगों को प्राथमिकता देना, अधिक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को प्रोत्साहित करना आदि। पर खुद भारत सरकार की वित्तीय सेहत अच्छी नहीं है। इसलिए जब तक खेती की दशा में विशेष सुधार नहीं किए जाते हैं, तब तक आर्थिक विकास दर के लक्ष्य को पाना संभव नहीं होगा। कृषि कर्ज बढ़ाने में भलाई नहीं खेती आज भी हमारी अर्थव्यवस्था का मूलाधार है। पर खेती की दशा हमारी अर्थव्यवस्था का सबसे चिंताजनक पहलू है। जिस क्षेत्र से देश की दो तिहाई आबादी की आजीविका चलती हो, उसकी हालत बिगड़ती जा रही है। चालू वर्ष में कृषि वृद्धि दर का 2.5 फीसदी रहने का अनुमान लगाया गया है। चार फीसदी विकास दर को प्राप्त करने के लिए काफी प्रयास की जरूरत होगी, जिसकी उम्मीद कम दिखाई देती है। बजट से किसानों, बेरोजगारों और छोटे उद्यमियों को भी बहुत आशाएं थीं, लेकिन वे पूरी नहीं हुई। किसानों को कर्ज के लिए ज्यादा धनराशि मुहैया कराई गई है। संभव है कि इससे किसानों को कुछ राहत मिलेगी, लेकिन कृषि के क्षेत्र में सिर्फ कर्ज की राशि बढ़ा देने से ही समस्या खत्म नहीं हो जाएगी। खेती को जब तक लाभकारी नहीं बनाया जाएगा, किसानों का संकट खत्म नहीं होगा। केंद्रीय बजट से कम वेतन वाले करदाताओं की सबसे बड़ी अपेक्षा आयकर में राहत की थी। महंगाई को देखते हुए वेतनभोगी कर्मचारियों को उम्मीद थी कि कम से कम तीन लाख तक की वार्षिक आय को आयकर के दायरे से बाहर रखा जाएगा, लेकिन उनकी यह उम्मीद भी पूरी नहीं की गई। क्योंकि आयकर की छूट सीमा 20 हजार रुपये बढ़ाकर 2 लाख रुपये तक की गई है। वैसे भी कई सेवाओं को सेवा कर के दायरे में लाकर सरकार ने जनता पर करों का बोझ पहले से ही काफी बढ़ा रखा है। अब यदि आप अपने मोबाइल फोन में 500 रुपये का टॉपअप डलवाएंगे तो सिर्फ 440 रुपये की टॉकवैल्यू मिलेगी। 60 रुपये सेवा कर के कट जाएंगे। इसी तरह से तमाम सेवाओं पर आपको ज्यादा सेवा कर अदा करना पड़ेगा। सरकार के सामने विकास दर को बनाए रखना, महंगाई को पांच फीसदी पर बांधे रखना, कृषि को बढ़ावा देना और राजकोषीय घाटे को कम करने जैसी समस्याएं हैं। इन समस्याओं को हल करके ही जीडीपी की मौजूदा रफ्तार को बढ़ाया जा सकता है, लेकिन सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती विभिन्न योजनाओं के लिए आवंटित सरकारी धन के सदुपयोग की है। अगर धन के सदुपयोग को निश्चित नहीं किया जाता है तो तमाम कल्याणकारी योजनाओं का लाभ जनता को नहीं मिलेगा। बिना बजट घाटा बढ़ाए यदि सार्वजनिक निवेश बढ़ाना है तो राजस्व घाटे को कम करना होगा। काले धन पर बातें तो बहुत की जाती हैं, लेकिन उसे रोकने के लिए कोई ठोस उपाय नहीं किया गया है। वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सरकार और प्रशासन की खामियों को भी समझा है और उसे ज्यादा सक्षम, प्रभावी और जनप्रिय बनाने के लिए सुधारों की जरूरत बताई है। सच भी यही है कि कृषि, आधारभूत और सामाजिक क्षेत्रों के विकास में सरकारों की नाकामी जगजाहिर हो चुकी है। असली समस्या तो प्रशासन को ईमानदार और संवेदनशील बनाने की ही है। सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि उदारीकरण के नतीजे आम लोगों तक पहुंचे और मुद्रा स्फीति की दर बढ़ने न पाए। सरकार को अपने संसाधनों की सीमा में बाहर जाने का कोई अधिकार नहीं है। सरकारी खर्चो में कटौती की कोई कोशिश नहीं की गई। बहुत ज्यादा उधार लेकर जीना वास्तव में भावी आमदनी की चोरी के अलावा कुछ नहीं है। सरकार पर कुल मिलाकर करीब 35 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है। यह अत्यंत चिंता की बात है। दांवपेच का हथियार बनता बजट केंद्रीय वित्तमंत्री ने बिजली और बुनियादी ढांचे के मद में धनराशि बढ़ाई है। पर इन कार्यक्रम की सभी योजनाओं को लागू करने के लिए इस बजट में दो लाख करोड़ रुपये की जरूरत पड़ेगी। वित्तमंत्री इसका कोई उपाय नहीं कर पाए हैं। वैसे भी बजट अब देश की अर्थव्यवस्था की तस्वीर पेश नहीं करते हैं। यह राजनीतिक दलों के दांवपेच का हथियार बन गए हैं, जिसका इस्तेमाल राजनेता जनता को रिझाने और भरमाने के लिए करते हैं। देश की अर्थनीति को और अधिक उदार बनाना आवश्यक है। पर यह कार्य सरल नहीं है। इस बारे में पहली बात यह है कि उदारीकरण की क्रिया सिलसिलेवार होनी चाहिए, एक साथ बहुत तेजी के साथ नहीं। आज भी आधुनिकीकरण या विस्तार के लिए जो आवेदन दिए जाते हैं, उनमें लालफीताशाही के कारण बहुत देर हो जाती है और कई स्तरों पर नौकरशाही की निष्ठुरता और कठोरता भी देखने को मिलती है। हमारे कुल बजट की तीन चौथाई धनराशि उस निकम्मी और नकारा नौकरशाही पर खर्च होती है, जो इस देश की जनता और करदाताओं के ऊपर बोझ बनकर बैठी हुई है। इस नौकरशाही की सुख-सुविधाओं की कटौती करने की हिम्मत अभी तक किसी भी सरकार ने नहीं दिखाई है। पिछले 10 साल में तैयार कम से कम चार प्रशासनिक सुधारों की रिपोर्ट सामने आ चुकी है। ताजी रिपोर्ट मोइली समिति की है। इस समिति की कई सिफारिशें हैं, पर लागू नहीं की जा रही हैं। हमारी अफसरशाही अड़ंगे लगाने के सिवा कोई काम नहीं करती है। वास्तव में किसी भी राष्ट्र की प्रगति मुख्यतया इस बात पर निर्भर करती है कि उसके लोगों का समय और उनकी ऊर्जा किस हद तक उत्पादनकारी प्रयोजनों के लिए मुक्त है। लोगों की सारी शक्ति संभावित योग्यताओं का इस्तेमाल करके देश की दौलत बढ़ाने में लगनी चाहिए। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
 
आम लोगों की मुसीबतें बढ़ेंगी
- अश्विनी महाजन
गत 15 मार्च को संसद में पेश हुए आर्थिक सर्वेक्षण 2011-2012 में देश की आर्थिक समस्याओं के लिए अंतरराष्ट्रीय कारणों को जिम्मेदार ठहराने की बात को आगे बढ़ाते हुए वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने अपने बजट भाषण में देश में घटती आर्थिक वृद्धि दर के लिए अंतरराष्ट्रीय उठापठक का ही नतीजा बताया है। सरकार ने पिछले नौ सालों में (वर्ष 2008-09 के अपवाद को छोड़कर) 6.9 प्रतिशत की सबसे कम आर्थिक वृद्धि अनुमानित होने पर भी लगभग संतोष जताया है। सरकार ने स्वीकार किया है कि आर्थिक सर्वेक्षण 2010-11 में नौ प्रतिशत आर्थिक वृद्धि की अपेक्षा रखी थी। अगर ऐसा हो पाता तो अर्थव्यवस्था की काफी समस्याएं कम हो जातीं। आर्थिक सर्वेक्षण में यह भी कहा गया है कि अगर हम अर्थव्यवस्था के विविध क्षेत्रों को देखें तो कृषि और सहायक गतिविधियों में 2.5 प्रतिशत, सेवा क्षेत्र में 9.4 प्रतिशत और औद्योगिक क्षेत्रों में 3.9 प्रतिशत की आर्थिक वृद्धि प्राप्त करने का अनुमान है। बजट में बताया गया है कि वर्ष 2011-2012 में राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 5.9 प्रतिशत रहने का अनुमान है। 2011-2012 का बजट पेश करते हुए वित्तमंत्री ने कहा था कि राजकोषीय घाटा 4.6 प्रतिशत रहेगा यानी जो राजकोषीय घाटा 4.13 लाख करोड़ रुपये अनुमानित किया गया था, वह बढ़कर अब 5.22 लाख करोड़ रुपये पहुंच गया है। बढ़ता हुआ राजकोषीय घाटा देश में मुद्रास्फीति के बढ़ने का मुख्य कारण बन रहा है। एक तरफ राजकोषीय घाटा पिछले वर्ष के अनुमान से कहीं आगे बढ़ गया है, दूसरी ओर जीडीपी की अनुमानित वृद्धि दर भी 9 प्रतिशत से घटकर मात्र 6.9 प्रतिशत ही रह गई है। अर्थव्यवस्था के लगभग सभी क्षेत्रों में वृद्धि दर प्रभावित हुई है, लेकिन सबसे ज्यादा असर औद्योगिक उत्पादन पर पड़ा है, जहां पिछली दो तिमाहियों में वृद्धि दर घटकर मात्र 0.4 प्रतिशत ही रह गई है। बढ़ते राजकोषीय घाटे और बढ़ती महंगाई के लिए जिम्मेदार अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन के बारे में वित्तमंत्री चुप हैं। वास्तव में राजकोषीय घाटा बढ़ने से जब उसकी भरपाई अतिरिक्त मुद्रा छापकर की जाती है तो उसका असर कीमतों पर पड़ता है। बढ़ती महंगाई के कारण देश का विकास बाधित होता है। हम जानते हैं कि पिछले कुछ सालों से बढ़ती महंगाई से घबराकर आरबीआइ लगातार ब्याज दरों में वृद्धि कर रहा है। बढ़ती ब्याज दरों के कारण देश में उत्पादन लागत बढ़ती है और औद्योगिक उत्पादन बाधित होता है। पहले से ही मुद्रास्फीति की मार झेल रहे उद्योगों और उपभोक्ताओं पर वित्तमंत्री ने करों का भारी बोझ लाद दिया है। सेवा कर को बढ़ाकर 12 प्रतिशत और वस्तुओं पर करों में भारी वृद्धि करते हुए वित्तमंत्री ने मुद्रास्फीति की समस्या को और बढ़ा दिया है। बजट में वित्तमंत्री मांग को बढ़ाकर आर्थिक वृद्धि बढ़ाने की बात करते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश में मांग को बढ़ाने की भारी जरूरत है। देश में मांग बढ़ाने के लिए उपभोक्ता मांग और निवेश मांग दोनों को बढ़ाना होगा, लेकिन दोनों प्रकार की मांग को बढ़ाने के लिए जरूरी है कि ब्याज दरों को कम किया जाए। आज बढ़ती ब्याज दरें मध्यम वर्ग के लिए मुसीबत का कारण बनी हुई हैं। ऐसे मे घरों और उपभोक्ता वस्तुओं की मांग बढ़ाने में कठिनाई आ रही है। उधर निवेश मांग भी घट रही है, क्योंकि अब निवेश करना पहले जैसा सस्ता नहीं रहा। इसलिए बजट में भले ही मांग आधारित विकास की बात कही गई है, लेकिन धरातल पर परिस्थितियां अनुकूल नहीं हैं। देश में मांग को बरकरार रखने के लिए महंगाई को बांधते हुए निवेश के वातावरण को पुष्ट करना होगा। देश में इन्फ्रास्ट्रक्चर की भारी कमी है। देश में बिजली उत्पादन की नई इकाइयों का निर्माण भी काफी कम हो रहा है। खेती के लिए सिंचाई परियोजनाओं की गति भी मंद है। नए भंडार गृह और कोल्ड स्टोरेज की भी देश में भारी कमी है। बजट 2012-2013 में ढांचागत विकास के लिए करों कुछ छूट अवश्य दी गई है, लेकिन यह अपर्याप्त है। यह सच है कि सरकार के पास इन परियोजनाओं के लिए धन का अभाव है, लेकिन उस कारण से इन परियोजनाओं को रोका नहीं जा सकता। जरूरी है कि सरकार निजी क्षेत्र के सहयोग से टैक्सों में कमी ओर सब्सिडी के माध्यम से इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास में सहयोगी बने। इससे दो लाभ होंगे, एक इस माध्यम से देश में मांग बढ़ेगी और दूसरी ओर ढांचागत विकास से देश के विकास को गति मिलेगी। (लेखक अर्थशास्त्री हैं)

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