Saturday, March 3, 2012

राजनीति की बलि चढ़ते वैज्ञानिक



राजनीति की बलि चढ़ते वैज्ञानिक
--निरंकार सिंह
 
अंतरिक्ष विज्ञानी आर. नरसिंह का इस्तीफा यही जाहिर करता है कि वैज्ञानिक संस्थानों में भी राजनीतिक उठापटक का खेल शुरू हो चुका है। कुछ दिन पहले ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कृषि वैज्ञानिकों के एक सम्मेलन में उनकी प्रशासनिक क्षमताओं का उपयोग नहीं हो पाने का मुद्दा उठाया था। अब आर. नरसिंह जैसे सम्मानित वैज्ञानिक का अंतरिक्ष कार्यक्रम की नियामक संस्था से इस्तीफा देना यही साबित करता है कि जिन संस्थाओं पर देश गर्व करता था, वहां भी सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है। एंट्रिक्स-देवास करार को लेकर इसरो के पूर्व प्रमुख जी. माधवन नायर सहित चार वैज्ञानिकों के खिलाफ की गई कार्रवाई से नरसिंह नाराज थे। इसमें संदेह नहीं कि नरसिंह एक योग्य वैज्ञानिक हैं और वह इसरो से 25 साल तक जुड़े रहकर भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम को नई ऊंचाइयों तक ले जाने में उनकी अहम भूमिका रही है। वह अंतरिक्ष आयोग में 20 साल सदस्य रहे और महत्वपूर्ण योगदान लिए उन्हें पद्मभूषण सहित कई पुरस्कार दिए गए। जब एंट्रिक्स-देवास समझौते की जांच के बाद सरकार ने माधवन नायर और तीन अन्य वैज्ञानिकों को कोई भी सरकारी पद या जिम्मेदारी देने पर रोक लगा दी तो आर. नरसिंह को भारी सदमा पहुंचा, क्योंकि माधवन नायर को चंद्रयान एक की सफलता का श्रेय दिया जाता है और महत्वपूर्ण योगदान के लिए उन्हें पद्मविभूषण से भी नवाजा गया, लेकिन नरसिंह का विरोध ज्यादा मायने रखता है। वह इसरो की कारोबारी शाखा एंट्रिक्स और निजी कंपनी मल्टीमीडिया देवास के बीच एस बैंड स्पेक्ट्रम को लेकर हुए व्यावसायिक करार की जांच करने वाली समिति में शामिल थे। सरकार अपनी बचाव में जांच के निष्कर्ष को ही हवाला देती आई है, लेकिन नरसिंह का कहना है कि उन्होंने अन्याय, जालसाजी या व्यक्तिगत लाभ का कोई सबूत नहीं पाया। नरसिंह ने स्वीकार किया कि इस सौदे में कुछ खामियां थीं और उन्होंने इस संबंध में सुझाव भी दिए थे। सरकार की कार्रवाई वैज्ञानिकों का मनोबल तोड़ने वाली है, क्योंकि किसी भी तकनीकी पहल के नाकाम होने का जोखिम तो सदैव बना रहता है। एंट्रिक्स देवास करार का विवाद उठने पर जिस समिति ने जांच की थी उसने सारा ठीकरा नायर और तीन अन्य वैज्ञानिकों पर फोड़ दिया और उनकी बात नहीं सुनी, जबकि इस करार को मंजूरी अंतरिक्ष आयोग ने दी थी। प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव, कैबिनेट सचिव और वित्त सचिव भी आयोग के सदस्यों में शामिल हैं। यदि कोई गड़बड़ी थी तो उस समय इन सदस्यों को क्यों नहीं पता चला और उस पर क्यों नहीं रोक लगाई गई। यदि इस करार के लिए नायर और उनके तीन वैज्ञानिक साथी दोषी हैं तो बाकी लोग कैसे दोषमुक्त हो सकते हैं। यह एक अहम सवाल है जिसका जवाब फिलहाल सरकार के पास नहीं है। जब किसी मामले या सौदे में कोई घपला या घोटाला पाया जाता है तो कुछ छोटे-मोटे लोगों के खिलाफ कार्रवाई करके मामला खत्म कर दिया जाता है, लेकिन एंट्रिक्स देवास करार के मामले में जिन वैज्ञानिकों को बलि का बकरा बनाया गया वे देश के होनहार वैज्ञानिक हैं। इसलिए इस मामले के तकनीकी और गैर तकनीकी सभी पहलुओं की उच्चस्तरीय जांच के बाद ही कोई कार्रवाई होनी चाहिए थी। सरकार ने अपनी साख बचाने के लिए जल्दबाजी में जो कार्रवाई की है उससे देश के वैज्ञानिकों में भारी रोष है। अंतरिक्ष वैज्ञानिक आर. नरसिंह का इस्तीफा इसी रोष की अभिव्यक्ति है। उधर इसरो के पूर्व अध्यक्ष जी. माधवन नायर ने तत्कालीन इसरो के अध्यक्ष राधाकृष्णन पर सरकार को गुमराह करने का आरोप लगाया है। उन्होंने एंट्रिक्स देवास करार की फिर से जांच कराने की मांग की है। नायर ने प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री वी. नारायण सामी को पत्र भेजकर इस सौदे के पहलुओं को स्पष्ट किया है। नायर के अनुसार अधिकारिक रिपोर्ट से परे भी कई चीजें हैं। एंट्रिक्स देवास करार देश में नई प्रौद्योगिकियों को लाने के लिए था। पता नहीं किन कारणों से वे इसे निरस्त करने और यह सब नाटक करने के लिए मजबूर हुए। बीके चतुर्वेदी और आर. नरसिंह की दो सदस्यीय समिति ने एंट्रिक्स-देवास समझौते के तकनीकी, व्यावसायिक, प्रक्रियात्मक और वित्तीय पहलुओं की समीक्षा की थी। रिपोर्ट में कहा गया था कि देवास स्पेक्ट्रम की बिक्री की चिंताओं का कुछ भी आधार नहीं है, लेकिन प्रत्यूष सिन्हा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय उच्चस्तरीय समिति का कहना था कि न केवल प्रशासनिक और प्रक्रियात्मक खामियां हुई हैं, बल्कि कुछ लोगों की ओर से कपटपूर्ण कार्रवाई की बात भी सामने आई है। सिन्हा समिति की मानें तो नायर समेत इसरो के चार पूर्व वैज्ञानिक इसके लिए जिम्मेदार है। इन रपटों के आधार पर ही नायर और तीन अन्य वैज्ञानिकों को किसी भी सरकारी पद पर काबिज होने से रोक लगाई गई। अब आर नरसिंह के इस्तीफे से इस मामले ने नया मोड़ ले लिया है। ऐसा लगता है कि जांच समिति के निष्कर्षो को ठीक से समझा नहीं गया और जल्दबाजी में की गई इस कार्रवाई से पूरे वैज्ञानिक समुदाय में कुंठा व्याप्त है। उधर विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के तहत काम करने वाले देश के प्रमुख शोध संस्थान सीएसआइआर के कामकाज में अनियमितताएं बढ़ी हैं। इसके लिए वर्तमान महानिदेशक समीर ब्रह्मचारी की नियुक्ति पर विभाग के मंत्री रहे कपिल सिब्बल पर भी सवाल उठ रहे हैं। देश के कई वैज्ञानिक संस्थानों और राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं पर ऐसे मठाधीशों का कब्जा है जिनका अकादमिक कार्य इस स्तर का नहीं है कि वे किसी संस्थान के निदेशक बनाए जाएं, लेकिन अपनी पहुंच के बल पर वे वैज्ञानिक अनुसंधान के मुखिया बने हुए हैं। विज्ञान में कुछ करने का मतलब है कि कोई नया आविष्कार किया जाना, लेकिन जब चुके हुए लोग राजनीतिक तिकड़म और भाई-भतीजावाद से वैज्ञानिक संस्थानों को चलाएंगे तो परिणाम समझा जा सकता है। सरकारी समिति ने देश की 40 अनुसंधान शालाओं के काम की जांच करके रिपोर्ट दी थी कि वैज्ञानिक कर्मचारियों की भर्ती निष्पक्ष नहीं है। इसमें भाई-भतीजावाद और लालफीताशाही का बोलबाला है। इसने सरकार से सिफारिश की कि थी नौ अनुसंधानशालाओं के निदेशकों को चेतावनी दी जाए और दो निदेशकों को सजा दी जाए। पता नहीं उस आयोग की सिफारिश पर अमल हुआ या नहीं। शायद इन्हीं कारणों से वैज्ञानिक समुदाय में कंुठा बढ़ रही है, जो त्यागपत्र और आत्महत्या के रूप में सामने आ रही है। यह अकारण नहीं है कि जिन भारतीय वैज्ञानिकों ने नाम कमाया है वे विदेशों में बस चुके हैं। लगभग पांच लाख भारतीय वैज्ञानिक और इंजीनियर आज देश से बाहर काम कर रहे हैं। आज भी विश्वस्तरीय माने जाने वाले हमारे आइआइटी के एक तिहाई छात्र विदेशों का रुख कर रहे हैं। इससे देश को लगभग 13 अरब डॉलर का नुकसान हो रहा है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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