Saturday, March 3, 2012

दंत विहीन हो जाएगा चुनाव आयोग



दंत विहीन हो जाएगा चुनाव आयोग
--मिथिलेश झा
 
पिछले दिनों चुनाव आयोग की नाराजगी का दंश झेलने वाले केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने संकेत दे दिया कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की प्रक्रिया खत्म होने के बाद चुनाव सुधारों पर विचार किया जाएगा, जिसमें आचार संहिता के उल्लंघन का मामला भी शामिल हो सकता है। सरकार के इस प्रयास से एक ओर तो चुनाव आयोग के अधिकारों में कटौती होगी, दूसरी ओर चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों और पार्टियों को नियंत्रण में रखने के लिए आचार संहिता का जो एक मजबूत हथियार चुनाव आयोग के पास है, केंद्र सरकार इसे छीन लेने की तैयारी में है। अगर आचार संहिता को वैधानिक दर्जा दे दिया गया तो आयोग दंतविहीन हो जाएगा। इसे वैधानिक दर्जा मिलने की सूरत में स्थानीय प्रशासन मुकदमा दर्ज करेगा और उसकी सुनवाई अदालत में होगी। फैसला आने में दस वर्ष भी लग सकते हैं और तब तक दोषी सत्ता का मजा लूटता रहेगा। दरअसल, पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को देखते हुए इस बार चुनाव आयोग ने दो महत्वपूर्ण निर्णय लिए। पहला, उसने केंद्र सरकार के उस फैसले पर चुनाव तक के लिए रोक लगा दी, जिसमें पिछड़े वर्गो के लिए निर्धारित 27 फीसदी आरक्षण में से 4.5 फीसदी अल्पसंख्यकों को दिए जाने की बात है। दूसरा, आयोग ने उत्तर प्रदेश में मायावती और हाथियों की मूर्तियों को ढकने का निर्देश दिया। दूसरे मामले में जब आयोग ने कदम उठाया तो कांग्रेस नेताओं को कोई परेशानी नहीं हुई, लेकिन जब इनके अपने नेताओं पर आयोग ने कार्रवाई की तो कांग्रेस पार्टी की प्रतिष्ठा पर आंच आने लगी। कांग्रेस के कई नेता आचार संहिता का उल्लंघन करते हुए चुनाव आयोग के खिलाफ लगातार बयान दे रहे हैं। निष्पक्ष एवं स्वतंत्र चुनाव कराना चुनाव आयोग का संवैधानिक अधिकार है और यह संविधान का बुनियादी हिस्सा है। संविधान के अनुच्छेद 324 में आदर्श चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन में कार्रवाई का अधिकार केवल चुनाव आयोग को है। यह सही है कि चुनाव आचार संहिता कानूनी प्रावधान की शक्ल में नहीं है और इस कारण उम्मीदवार और राजनीतिक दलों को इसके उल्लंघन पर गंभीर कार्रवाई का डर नहीं सताता। मगर इसी संहिता के बल पर गत दो दशक में निर्वाचन आयोग ने चुनावों को साफ-सुथरा और अनुशासित बनाने के सराहनीय प्रयास किए हैं। वर्तमान में चुनाव आयोग के पास आचार संहिता लागू करने के लिए व्यापक शक्तियां हैं। 1978 में एक मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने (मोहिंदर सिंह गिल मामला) यह व्यवस्था दी कि जहां संसद और राज्य विधानसभाओं द्वारा बनाए गए कानून हैं, वहां तो आयोग उन कानूनों के अनुरूप काम करेगा, लेकिन जिन मामलों पर कोई कानून नहीं है, वहां आयोग को स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए आवश्यक कार्रवाई करने का व्यापक अधिकार है। पिछले कुछ समय से जिस प्रकार राजनीति का अपराधीकरण हुआ है और उम्मीदवार अपनी अनुशासहीनता की हद पार करते देखे गए हैं, उस परिप्रेक्ष्य में आयोग के पास कार्रवाई के कुछ और अधिकार होने चाहिए। चुनाव आचार संहिता को संवैधानिक रूप देने का प्रस्ताव न सिर्फ निरंकुश मानसिकता का परिचायक है, बल्कि यह व्यावहारिक भी नहीं है। भारतीय अदालतों में पहले से ही काम का बोझ है। करोड़ों मामले अदालतों में अब भी लंबित पड़े हैं। ऐसी स्थिति में अदालत से यह उम्मीद करना कि वह समय पर चुनाव आचार संहिता संबंधी एक अतिरिक्त मामले की सुनवाई कर पाएगी, व्यर्थ है। फिर निर्वाचन प्रक्रिया के दौरान नियम-कायदों की अनदेखी पर अंकुश किस प्रकार लग पाएगा। संवैधानिक संस्थाओं पर कुठाराघात कांग्रेस सरकार करती आई है। दागी होने लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज की आपत्तियों के बावजूद प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने पीजे थॉमस को सीवीसी जैसे संवैधानिक पद पर नियुक्त कर दिया, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी संज्ञान लिया था। 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले को लेकर सीएजी ने जो आकलन किया, उस पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल ने शून्य क्षति की बात ही नहीं कही, बल्कि सीएजी के अधिकार-क्षेत्र पर भी सवालिया निशान लगाकर सीएजी की प्रतिष्ठा पर चोट पहुंचाई। सीबीआइ का दुरुपयोग छिपा हुआ नहीं है। अब निर्वाचन आयोग के अधिकारों को भी कुचलने की साजिश चल रही है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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