Saturday, March 3, 2012

पश्चिमी देशों की कठपुतली बनते एनजीओ




पश्चिमी देशों की कठपुतली बनते एनजीओ
--प्रमोद भार्गव
 
हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सनसनी के लिए कभी कुछ नहीं बोलते। सधी वाणी में सीमित शब्द बोलने के कारण ही उनके बयान बेवजह सुर्खियों का हिस्सा नहीं बनते। अमेरिका की उदारवादी नीतियों और स्वयंसेवी संगठनों के कमोवेश पैरोकार रहे प्रधानमंत्री दोनों को कठघरे में खड़ा करेंगे, यह थोड़ी हैरानी में डालने वाली बात जरूर है। लेकिन इसकी पृष्ठभूमि में औद्योगिक विकास को लगते झटके और लगातार गिरती विकास दर भी है। प्रधानमंत्री ने साइंस पत्रिका को दिए साक्षात्कार में कहा है कि कुछ एनजीओ भारत की ऊर्जा जरूरतों की कद्र नहीं कर रहे। अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों से मिलने वाली आर्थिक मदद का इस्तेमाल कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा परियोजना के विरुद्ध मुहिम चलाने में कर रहे हैं। प्रधानमंत्री का यह असाधारण और आश्चर्यजनक बयान गृह मंत्रालय के उस जांच प्रतिवेदन पर आधारित है, जिसमें कहा गया है कि कुछ एनजीओ धर्मार्थ और जन कल्याणार्थ मिले विदेशी धन का इस्तेमाल परमाणु खतरों के बहाने लोगों को परियोजना के खिलाफ भड़काने में कर रहे हैं। बता दें कि कुडनकुलम में परमाणु संयंत्र रूस के सहयोग से स्थापित किया जा रहा है। इसलिए कूटनीति के कुटिल खिलाड़ी अमेरिका के प्रति उठे संदेह को एकाएक नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, क्योंकि इन संगठनों के मूलभूत उद्देश्य भले ही जन कल्याण हों, लेकिन इनकी पृष्ठभूमि में अंतत: अमेरिका के व्यावसायिक हितों को साधना ही सर्वोच्च लक्ष्य है।
 राह से भटके एनजीओ
आधुनिक या नवीन स्वयंसेवी संगठनों को सरकार की जटिल शासन प्रणाली के ठोस विकल्प के रूप में देखा गया था। उनसे उम्मीद थी कि वे एक उदार और सरल कार्यप्रणाली के रूप में सामने आएंगे। चूंकि सरकार के पास ऐसी कोई जादू की छड़ी नहीं होती कि वह हर छोटी-बड़ी समस्या का समाधान कर सके। इस परिप्रेक्ष्य में विकास संबंधी कार्यक्रमों में आम लोगों की सहभागिता की अपेक्षा की जाने लगी और उनके स्थानीयता से जुड़े महत्व व ज्ञान परंपरा को भी स्वीकारा जाने लगा। वैसे भी सरकार और संगठन दोनों के लक्ष्य मानव के सामुदायिक सरोकारों से जुड़े हैं। समावेशी विकास की अवधारणा भी खासतौर से स्वैच्छिक संगठनों के मूल में अतर्निहित है। बावजूद प्रशासनिक तंत्र की भूमिका कायदे-कानूनों की संहिताओं से बंधी है। लिहाजा, उनके लिए मर्यादा का उल्लंघन आसान नहीं होता। जबकि स्वैच्छिक संगठन किसी आचार संहिता के पालन की बाध्यता से स्वतंत्र हैं। इसलिए वे धर्म और सामाजिक कार्यो के अलावा समाज के भीतर मथ रहे उन ज्वलंत मुद्दों को भी हवा देने लग जाते हैं, जो उज्जवल भविष्य की संभावनाओं और तथाकथित परियोजनाओं के संभावित खतरों से जुड़े होते हैं। कुडनकुलम परियोजना के विरोध में लगे जिन विदेशी सहायता प्राप्त संगठनों की नाक में नकेल डाली गई है, वे इस परियोजना के परमाणु विकिरण संबंधी खतरों की नब्ज को सहला कर अमेरिकी हित साधने में लगे थे, जिससे रूस के रिएक्टरों की बजाय अमेरिकी रिएक्टरों की खरीद भारत में हो। ऐसे छद्म संगठनों की पूरी एक श्रंृखला है, जिन्हें समर्थक संस्थाओं के रूप में देसी-विदेशी औद्योगिक घरानों ने पाला-पोषा। चूंकि इन संगठनों की स्थापना के पीछे एक सुनियोजित मंशा थी, इसलिए इन्होंने कॉरपोरेट एजेंट की भूमिका निभाने में कोई संकोच नहीं किया, बल्कि आलिखित अनुबंध को मैदान में क्रियान्वित किया।
मदद का बेजा
 इस्तेमाल देसी या विदेशी सहायता नियमन अधिनियम के चलते राजनीति से जुड़े दल विदेशी आर्थिक मदद नहीं ले सकते, लेकिन स्वैच्छिक संगठनों पर यह प्रतिबंध लागू नहीं है। इसलिए खासतौर से पश्चिमी देश अपने मंसूबे साधने के लिए उदारता से भारतीय गैरसरकारी संगठनों को अनुदान देने में लगे हैं। ब्रिटेन, इटली, नीदरलैंड, स्विटजरलैंड, कनाडा, स्पेन, स्वीडन, ऑस्ट्रेलिया, बेल्जियम, फ्रांस, ऑस्टि्रया, फिनलैंड और नार्वे जैसे देश दानदाताओं में शामिल हैं। आठवें दशक में गैरसरकारी संगठनों को समर्थ व आर्थिक रूप से संपन्न बनाने का काम काउंसिल फॉर एडवांसमेंट ऑफ पीपुल्स एक्शन (कपार्ट) ने भी किया। कपार्ट ने ग्रामीण विकास, ग्रामीण रोजगार, महिला कल्याण, गरीबी उन्मूलन, शिक्षा साक्षरता, स्वास्थ्य, जनसंख्या नियंत्रण और कन्या भ्रूण हत्या के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए संगठनों को दान में धन देने के द्वार खोल दिए। पर्यावरण संरक्षण और वन विकास के क्षेत्रों में भी इन संगठनों की भूमिका रेखांकित हुई। भूमंडलीय परिप्रेक्ष्य में नव उदारवादी नीतियां लागू होने के बाद और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भारत में आगमन का सिलसिला परवान चढ़ने के बाद तो जैसे एनजीओ के दोनों हाथों में लड्डू आ गए। खासतौर से दवा कंपनियों ने इन्हें काल्पनिक महामारियों को हवा देने का जरिया बनाया। एड्स, एंथ्रेक्स और व‌र्ल्ड फ्लू की भयावहता का वातावरण रचकर एनजीओ ने ही अरबों-खरबों की दवाएं और इनसे बचाव के नजरिए से तमाम उपायों के लिए बाजार और उपभोक्ता तैयार करने में उल्लेखनीय, किंतु छद्म भूमिका का निर्वहन किया। चूंकि ये संगठन विदेशी कंपनियों के लिए बाजार तैयार कर रहे थे, इसलिए इनके महत्व को सामाजिक गरिमा प्रदान करने की चालाक प्रवृत्ति के चलते संगठनों के मुखियाओं को न केवल विदेश यात्राओं के अवसर देने का सिलसिला शुरू हुआ, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मान्यता देते हुए इन्हें संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा आयोजित विश्व सम्मेलनों व परिचर्चाओं में भागीदारी के लिए आमंत्रित भी किया जाने लगा। इन सौगातों के चलते गैरसरकारी संगठनों का अर्थ और इनकी भूमिका दोनों बदल गए। जो सामाजिक संगठन लोगों द्वारा अवैतनिक कार्य करने और आर्थिक बदहाली के पर्याय हुआ करते थे, वे वातानुकूलित दफ्तरों और लग्जरी वाहनों के आदी हो गए। इन संगठनों के संचालकों की वैभवपूर्ण जीवन शैली में अवतरण के बाद उच्च शिक्षित, चिकित्सक, इंजीनियर, प्रबंधक तथा अन्य पेशेवर लोगों इनसे जुड़ने लगे। इन वजहों से इन्हें सरकारी विकास एजेंसियों की तुलना में अधिक बेहतर और उपयोगी माना जाने लगा। देखते-देखते दो दशक के भीतर ये संगठन सरकार के समानांतर एक बड़ी ताकत के रूप में खड़े हो गए, बल्कि विदेशी धन और संरक्षण मिलने के कारण ये न केवल सरकार के लिए चुनौती साबित हो रहे हैं, बल्कि आंख दिखाने का काम भी कर रहे हैं। कुडनकुलम परियोजना का विरोध इसी मानसिकता का परिचायक है।
नकेल कसने की कवायद
हालांकि नई दिल्ली में रूस के राजदूत एलेक्जेंडर काडकिन पहले ही एनजीओ की साजिश की ओर इशारा कर चुके थे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का बयान आने के बाद रूस के प्रधानमंत्री ब्लादिमीर पुतिन भी मनमोहन सिंह के साथ खड़े हो गए हैं। उन्होंने साफ किया है कि स्वयंसेवी संगठन दूसरे देशों में अस्थिरता पैदा करने के काम में लगे हैं। लिहाजा, उनके खिलाफ ठोस कानूनी कार्रवाई की जरूरत है। यहां गौरतलब यह भी है कि पुतिन और मनमोहन सिंह ठीक उस वक्त मुखर हुए हैं, जब मिस्र में अमेरिका से आर्थिक सहायता प्राप्त एनजीओ के कार्यकर्ताओं के खिलाफ अदालती कार्रवाई शुरू हुई है। परोपकार और जरूरतमंदों की सहायता भारतीय दर्शन और संस्कृति का अविभाज्य हिस्सा है, लेकिन वर्तमान स्वैच्छिक संगठनों को देसी-विदेशी धन के दान ने इनकी आर्थिक निर्भरता को दूषित तो किया ही, इनकी कार्यप्रणाली को भी अपारदर्शी बना दिया है। इसलिए ये विकारग्रस्त तो हुए ही, अपने बुनियादी उद्देश्यों से भी भटक गए। कुडनकुलम में जिन संगठनों पर कानूनी शिकंजा कसा गया है, उन्हें धन तो विकलांगों की मदद और कुष्ठ रोग उन्मूलन के लिए मिला था, लेकिन इसका दुरुपयोग वे परियोजना के खिलाफ लोगों को उकसाने में कर रहे थे। लिहाजा, सरकार की कार्रवाई को गैरवाजिब नहीं कहा जा सकता। अब जरूरत है कि सरकार एक कदम आगे बढ़कर जहां-जहां भी इन परियोजनाओं का विरोध हो रहा है, वहां सक्रिय स्वैच्छिक संगठनों की भूमिका की पड़ताल कर उन पर शिकंजा कसे, जिससे परियोजनाएं और औद्योगिक विकास बाधित न हो। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
 
 
पैसे के लिए ये कुछ भी करेंगे
-- ज्ञानेंद्र रावत
गैरसरकारी संगठनों यानी एनजीओ की विश्वसनीयता पर लंबे अरसे से सवाल उठते रहे हैं और इस क्षेत्र में सुधार की मांग भी होती रही है। आज जबकि ऐसे संगठन सुरसा के मंुह की तरह बढ़ रहे हैं और खूब फल-फूल रहे हैं, उस हालत में इनकी कार्यप्रणाली पर चर्चा करना जरूरी हो जाता है। इसमें कोई शक नहीं कि आज गैरसरकारी संगठन चलाना एक कारोबार हो गया है। अलग-अलग नाम से संस्थाओं का रजिस्ट्रेशन करवाकर विदेशों से या देश के सरकारी विभागों से अनुदान हासिल करना, कागजों में ऊल-जलूल खर्च दिखाकर उसे आपस में बांट लेना एक पेशा हो गया है। यही कारण है कि सरकारी विभागों की तरह गैरसरकारी संगठनों पर भी उंगलियां उठने लगीं और इनकी विश्वसनीयता को ही कटघरे में खड़ा किया जाने लगा। एनजीओ के विस्तार की परिस्थितियों पर नजर डालें तो पता चलता है कि साठ और सत्तर के दशकों में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से समाज में स्वैच्छिक कार्यो की भावना जाग्रत करने के लिए संस्थागत प्रयासों को महत्ता दी गई। इसके लिए पूर्व में कार्यरत सामाजिक संगठन या फिर नव गठित संगठनों-संस्थाओं को इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई और उनके लिए अनुदान के द्वार खोल दिए गए। उन्हें इन कामों के लिए जबरदस्त आर्थिक मदद दी गई। इस मदद का इन संगठनों ने मनचाहा इस्तेमाल भी किया। इसकी एक वजह यह भी थी कि ये जनता के प्रति जवाबदेह नहीं थे, बल्कि वे तो दानदाता एजेंसियों के प्रति ही जवाबदेह रहे। जनकल्याण के काम पूरे करने या यों कहें कि उन कार्यो की पूर्णता दानदाता एजेंसियों को दिखाना ही इनका एकमात्र मकसद रहा। इसके बाद नई योजना के लिए नया प्रयास और फिर एक नए दानदाता की तलाश। एनजीओ काम करें या न करें, लेकिन जनता के बीच ढिंढोरा पीटने में कभी पीछे नहीं रहे। इससे इन्हें प्रशंसा और प्रतिष्ठा मिली। जनता के प्रति जवाबदेह न होते हुए भी कहीं-कहीं तो वे जनता के बीच भगवान भी कहलाए जाने लगे। कारण पीने का पानी मुहैया कराना, अच्छे स्कूलों के माध्यम से प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर स्कूली शिक्षा उपलब्ध कराना, किसानों को खेती का विस्तार, उसके लिए तकनीकी ज्ञान प्रदान करना, पर्यावरण सुधार, जीवों की सुरक्षा आदि यानी जो जिन कार्यो की जिम्मेदारी सरकार की थी, एनजीओ द्वारा किये जाने लगे, जिससे जनता में इनकी पहचान बनी। दूसरी तरफ सरकार से मोह भंग होता गया। यही कुछ कारण हैं, जो इनके विस्तार के अहम कारण रहे। लिहाजा, आज कॉरपोरेट सेक्टर में भी इन पेशेवर स्वयंसेवकों की मांग तेजी से बढ़ती जा रही है। इस पर अंकुश लगा पाना आज सरकार के बूते के बाहर की बात है। जहां तक एनजीओ की कार्यप्रणाली पर निगरानी का सवाल है तो जो एनजीओ विदेशी सहायता से चलाए जा रहे हैं, उनकी निगरानी के लिए विदेशी दान नियमन कानून है। फिर विदेशी सहायता देने वाली संस्थाएं अपने दिए धन के इस्तेमाल की जांच-परख भी करती हैं। यह और बात है कि उन्हें संतुष्ट करने में हमारे भारतीयों को महारत हासिल है। लेकिन गैरसरकारी संगठनों को जिन योजनाओं के लिए सरकारी पैसा मिलता है, उसके बारे में जानने का हक तो जनता को है ही। आखिर वह पैसा हम टैक्स के रूप में चुकाते हैं। कुछ अरसा पहले उपराष्ट्रपति डॉ. हामिद अंसारी ने कहा था कि मुनाफा नहीं कमाने वाली संस्थाओं, गैरसरकारी संगठनों, ट्रस्टों आदि का भी सीएजी द्वारा ऑडिट कराया जाना चाहिए। मगर इसके लिए ब्रिटेन की तरह राज्य स्तरीय चैरिटी कमीशन की स्थापना जरूरी है ताकि नागरिक समाज से संबंध बनाए रखने के लिए कानूनी नियम और नीतियां बनाई जा सकें। यह तभी संभव है, जबकि सरकार सजग प्रहरी की भूमिका निभाए और जनता जागरूक रहकर इन पर नजर रखे। अब देखना यह है कि सरकार ने विदेशी सहायता नियामक अधिनियम 1976 में संशोधन करके नए कानून का जो मसौदा तैयार किया है, वह कब तक कानूनी रूप अख्तियार करेगा। प्रस्तावित कानून के मुताबिक सरकारी अधिकारी, जन प्रतिनिधि, राजनीतिक दलों के दफ्तरों में काम करने वाले, जज आदि सामाजिक कार्यो के नाम पर विदेशी सहायता हासिल नहीं कर पाएंगे। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


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